अनुक्रमणिका
1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्‍य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्‍हन लौटी बारात -- श्री सन्‍तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्‍ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्‍सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्‍ठ
12- अभिमन्‍यु की हत्‍या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्‍प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्‍पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्‍सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्‍द्र परदेशी
17 - प्रश्‍न से परे -- श्री विलास विहारी

(1) एक नई शुरुआत

डॉ0 सरला अग्रवाल
सुबह का काम निबटाकर सुहासिनी प्रातः कालीन सुनहरी धूप का आनंद लेने के लिए बाहर लॉन में कुर्सी डालकर बैठ गई।
उसे बच्‍चों की याद सताने लगी। बड़ी पुत्री तृप्‍ति का विवाह उन्‍होंने पिछले वर्ष ही किया था। तृप्‍ति के पति अभिलाष इंजीनियर हैं, तृप्‍ति उन्‍हीं के साथ गई हुई है। भारतीय परिवारों में माता-पिता जब तक अपने बच्‍चों का विवाह नहीं कर लेते सदैव तनावग्रस्‍त ही रहते हैं। यह कर्तव्‍य-बोध उनके हृदय को हर पल कचोटता रहता है.....।

इधर कई दिनों से मानव का पत्र नहीं आया था। आज उन्‍हें उसके पत्र की प्रतीक्षा थी....। तभी डाकिया आकर पत्रों के बंडल उन्‍हें थमा गया। अधिकांश पत्र पति संजीव के ही थे। उन्‍होंने लिखावट पहचानकर बेटे का पत्र उन पत्रों के बीच से निकाल लिया और उसे खोलकर पढ़ने लगी। मानव ने अपनी राजी-खुशी तो लिखी ही थी साथ ही वर्षा की छुटिटयों में सबको अपने पास वहाँ आने का आमंत्रण भी दिया था। मानव का पत्र पढ़कर सुहासिनी का हृदय आनंद से भर उठा.....। नेत्रों के समक्ष अतीत के चलचित्र घूमने लगे....। वह कुर्सी पर अधलेटी-सी दिवास्‍वप्‍नों में खोने लगी....।

उस दिन मानव का रिजल्‍ट आउट हुआ था। वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया था। सुहासिनी बेहद खुश थीं। कानोंकान यह समाचार सुवासित शीतल पवन के तीव्र झोकें-सा समस्‍त परिचितों में प्रसारित हो गया था। बहनें सोच रही थीं कि उनका भइया नगर का कलक्‍टर बनेगा, उसका कार-बँगला होगा, उसके आगे-पीछे वर्दी वाले सेवकों की फौज चलेगी, सब उनकी आँख के संकेतों पर नाचेंगे....। यही सब कल्‍पनाएँ करतीं दोनों पुलकित हो रही थीं।

‘‘मैं तो अपने भइया के लिए मेम जैसी दीखने वाली सुंदर भाभी लाऊँगी।'' तृप्‍ति ने कहा।
‘‘दीदी चिंता न करो, माँ कह रही थीं कि अब तो भइया के लिए एक से एक बढ़कर बढ़िया रिश्‍तों की लाइन लग जाएगी.....। छाँट लेना तुम उनमें से अपनी पसंद की भाभी....क्‍यों? वर्षा प्रसन्‍नतापूर्वक हास्‍य के साथ कहने लगी।''

‘‘पर भई, हमें भी तो अपना रुप-रंग सँवारना चाहिए न अब! मैं तो कल ही ब्‍यूटी पार्लर जाकर अपने बाल सेट करवाऊँगी। और हाँ, अब तो मैं ब्‍यूटीशियन का कोर्स करुँगी ताकि खुद ही बढ़िया मेकअप कर सकूँ। बहनों को भी तो कलक्‍टर भाई के अनुरूप ही अपना रहन-सहन और व्‍यक्‍तित्‍व बनाना आवश्‍यक है, क्‍यों भइया?'' भइया को सामने से आते देखकर वर्षा ने गर्व भरी नजरों से उनकी ओर देखा।

‘‘अरे ऐश्‍वर्या रानी! अभी से इतनी योजनाएँ मत बनाओ, धीरज धरो। कहीं तुम्‍हारा भइया फाइनल परीक्षा में गोल हो गया तो?''
‘‘रहने भी दो भइया, तुम हमें इतना निराश नहीं करना। एक बार सब्‍जबाग दिखा ही दिया है तो उसमें सैर तो करानी ही पड़ेगी, साथ ही फल-फूल भी खिलाने होंगे। अरे, खूब परिश्रम करो....देखते हैं भला कैसे उत्तीर्ण नहीं होगे? तुम तो भाग्‍यवादी नहीं हो!''

‘‘अरे यह क्‍या मसखरी लगा रखी है? मानव! इतना बड़ा हो गया है, पर अभी तक तेरा बचपना नहीं गया। जो भी मुँह में आता है बकता रहता है। जा बाजार जाकर एक किलो लडडू और आधा किलो नमकीन और ले आ, जल्‍दी आना! घर में कोई आ जाए तो अब कुछ भी बाकी नहीं है मेरे पास मुँह मीठा कराने के लिए।''

सुहासिनी ने पचास रुपये का नोट मानव के हाथों में थमा दिया। हुआ भी यही, इधर मानव ने स्‍कूटर उठाया, उधर पिताजी अपने कुछ सहकर्मियों के साथ घर में घुसे।

‘‘अरे सुनती हो! देखो तो कौन-कौन आए हैं? सबका मुँह तो मीठा कराओ!'' चहकते हुए उन्‍होंने सुहासिनी को हाँक लगाई।
साड़ी का पल्‍लू सुव्‍यवस्‍थित करते हुए सुहासिनी ने मृदुल मुस्‍कान के साथ हाथ जोड़कर सबका स्‍वागत किया और उनकी बधाइयों के उत्तर में आगे बढ़कर बोली-‘‘भाई साहब बधाई तो आप सबको भी हो! मानव तो आप सभी का बेटा है। ईश्‍वर की असीम कृपा एवं आप सब बड़ों के आशीर्वाद से ही तो यह दिन देखने को मिला है हम सबको!'' उसने बड़ी पुत्री तृप्‍ति को आवाज लगा दी-‘‘तृप्‍ति बेटा, जरा चाय का पानी तो चढ़ा दे।'' फिर आगंतुकों के साथ बैठक में चली गई।

इतिहास विषय लेकर स्‍नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के पश्‍चात मानव ने प्रशासनिक सेवा के लिए अपना भाग्‍य आजमाने का निर्णय लिया। अतः वह अब घर-परिवार से दूर जयपुर में रहकर प्रतियोगिता की तैयारी कर रहा था।

मानव को इस बात की अत्‍यन्‍त प्रसन्‍नता थी कि इस प्रथम टैस्‍ट में उसके साथ-साथ उसका रूममेट विकास भी चुन लिया गया था। दोनों लड़के रात-दिन निरंतर पढ़ाई में लगे रहे थे। उन दोनों ने परस्‍पर एक दूसरे से आगे निकलने और इस टैस्‍ट में चुने जाने की होड़ लगा रखी थी, पर उनकी यह होड़ स्‍वस्‍थ थी, इसमें ईर्ष्‍या, द्वेष या एक-दूसरे को गिराने का भाव कदापि न था। न ही वे एक दूसरे के साथ किसी बात का दुराव-छिपाव ही रखते थे, इसी कारण साथ रहकर पढ़ाई और भी अच्‍छी तरह से हो पाई थी।

‘‘माँ कहाँ हो, बड़े जोर की भूख लगी है.....'' कहते हुए सूटकेस एक ओर कोने में पटककर मानव शयनकक्ष में पलंग पर लेट गया। वह थककर चूर-चूर हो रहा था।

‘‘अरे मानव बेटा! कब आया रे तू? खबर तक नहीं की आने की?'' सुहासिनी इतने महीनों बाद बेटे को जयपुर से आया हुआ देखकर खिल उठी थीं. ....वात्‍सल्‍य की मधुर भावनाएँ उनके मानस में हिलोरे लेने लगीं। ......मानव शोर मचाने लगा था।

‘‘अच्‍छा बाबा अच्‍छा ! पहले तेरे लिए थाली लगाकर लाती हूँ।'' सुहासिनी फुर्ती से रसोई में गई और गरमा-गरम परांठे सेंकने लगी। सब्‍जी दाल पहले ही बन चुकी थी। झट से दही-दाल, सब्‍जी और कुछ अचार के साथ घी भरे मोटे-मोटे दो करारे पराठें सेंककर वह थाली में रखकर ले आईं और थाली मानव के हाथों में पकड़ा दी।

‘‘वाह! क्‍या करारे परांठे हैं? आनंद आ गया माँ, हाय राम ! तुम्‍हारे हाथ के खाने के लिए तो तरस ही गया। कितने ही दिनों से वहाँ ढंग का खाना नहीं मिल पाया। पढ़ाई! पढ़ाई! पढ़ाई! दिमाग खराब हो गया....।'' ‘‘पर्चे तो खूब अच्‍छे हुए हैं न बेटे?'' सुहासिनी ने अपनी स्‍नेहिल दृष्‍टि से पुत्र को सहलाते हुए पूछा।
‘‘यह तो अब रिजल्‍ट ही बताएगा माँ, पहले से कुछ भी नहीं कहा जा सकता....मेहनत तो खूब की है। मैंने तो सोच लिया है कि या इस पार या फिर उस पार।''

‘‘मतलब ?''
‘‘मतलब यह है, कि यदि इस परीक्षा में सफल हो गया तो ठीक..... वरना दोबारा तो मैं तैयारी नहीं करुँगा....कहीं नौकरी ढूँढ़ लूँगा।''
‘‘अरे वाह! कैसी बातें करता है? इतनी जल्‍दी हथियार डाल देगा? एक बार में कितने लड़के आ पाते हैं? दो तीन प्रयास तो करने ही पड़ते हैं!'' सुहासिनी पुत्र की बात से घबरा उठी थीं।

‘‘भई इसी में पास हो जाएगा हमारा बेटा ! इसे पूरा भरोसा जो है अपने पर, तभी तो इस तरह की बातें कह रहा है, तुम बड़ी भोली हो सुहासिनी, साइकोलोजी को समझा करो.....।'' मानव के पिता ने कमरे में प्रवेश करते हुए अपने विचार प्रकट किए।

दिन यूँ ही बीतते रहे....कुछ ही दिनों पश्‍चात वह शुभ दिन भी आ गया जब मानव की इस प्रतियोगिता का परिणाम आना था। मानव बहुत अच्‍छे अंकों से परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। सारा परिवेश, परिजन और आस-पड़ोसी सभी इस हर्ष में सम्‍मिलित थे। मानव को अब आगे की टे्रनिंग के लिए मसूरी जाना था। अब सचमुच ही मानव के विवाह के लिए बहुत अच्‍छे, ऊँचे घरानों से रिश्‍ते आने लगे। सुहासिनी के पास लड़कियों की फोटो एवं परिचय के अंबार लग गए। दोपहार के समय गृहकार्याें से निबटकर माँ-बेटी बैठकर सारे पत्र पढ़तीं। लड़कियों के चित्रों को ध्‍यानपूर्वक आलोचक दृष्‍टि से ध्‍यानपूर्वक देखतीं......जो चित्र मन को भाते और उनका परिचय भी उन्‍हें अपनी आवश्‍यकतानुरूप महसूस होता उन्‍हें वे छाँट-छाँट कर अलग फाइल में रखती जातीं।

मानव ने मसूरी जाते समय उन्‍हें विशेष रूप से ताकीद कर दी थी कि उसे वहाँ विवाह के विषय में कभी कुछ भी न लिखा जाए। न ही कभी कोई फोटो, परिचय या प्रस्‍ताव वहाँ उसके परामर्श हेतु भेजा जाए। संजीव कुमार भी इसके विरुद्ध थे....वह कहते-‘‘अभी मानव की आयु है ही कितनी? सर्विस में आ जाए, परिश्रम करके कुछ बन जाए, उसके पश्‍चात ही विवाह करना उचित रहेगा....तुम लोग अभी जल्‍दी मत करो।''

कुछ दिनों से सेठ हीरालाल जी अक्‍सर ही उनके यहाँ आने लगे थे, हालाँकि दोनों परिवारों के जीवन-स्‍तर में जमीन-आसमान का अंतर था। संजीव कुमार एक सरकारी कार्यालय में हेड़ क्‍लर्क के पद पर आसीन थे और मध्‍यमवर्गीय परिवार से आते थे। सेठ हीरालाल नगर के स्‍वनाम धन्‍य हीरों के व्‍यापारी थे, उनके कई बड़े शोरुम और बड़े-बड़े कृषि फार्म थे। सेठ जी की चमचमाती आयातित शवरलैट गाड़ी जब उनके द्वार पर आकर खड़ी होती तो पहले वर्दी पहने शौफर आगे की सीट से द्वार खोलकर बाहर निकलता और सेठ जी के लिए गाड़ी का पीछे का द्वार खोलकर अदब के साथ खड़ा हो जाता। श्‍वेत सफारी सूट में सजे सेठ जी के गाड़ी से बाहर निकलने के साथ ही वह अदब से गाड़ी का द्वार बंद करके एक ओर खड़ा हो जाता। संजीव कुमार और सुहासिनी खिड़की से झाँककर उन्‍हें अपने द्वार की ओर आते देखते तो उनका सीना गर्व से फूलकर दो हाथ चौड़ा हो जाता। अपनी औकात विस्‍मृत कर वह स्‍वयं को कलक्‍टर के पिता समझ गर्वान्‍वित हो उठते!

नगर-श्रेष्‍ठी सेठ हीरालाल जी अपनी पुत्री का विवाह कलक्‍टर दामाद से करने के लिए कुछ भी कीमत अदा करने के लिए तैयार थे। उनकी पुत्री ने इसी वर्ष बी.ए. पास किया था। उसका रंग गेहुआँ था, पर काया कुछ स्‍थूल थी तो क्‍या हुआ? वह मानव और अपनी पुत्री को विवाह में कार एवं बँगले सहित जीवन की समस्‍त सुख-सुविधाएँ जुटाने एवं कई लाख रुपये कैश देने के लिए भी तैयार थे। उनका कहना था कि मानव के लिए उनकी पुत्री सर्वथा उपयुक्‍त है, अतः संजीव कुमार को आँख मींचकर यहाँ सम्‍बन्‍ध पक्‍का कर देना ही उचित रहेगा।

कई दिनों से एक बड़ी कंपनी के डायरेक्‍टर जीवनलाल के फोन संजीव कुमार के पास नित्‍य ही आ रहे थे। वे मानव के मसूरी से लौटने की बड़ी बेकरारी के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्‍होंने पुत्री की फोटो एवं बायोडाटा तो पहले ही प्रेषित कर दिए थे। अब मानव के घर वापस आते ही वह अपनी पुत्री को उसे दिखलाकर बात पक्‍की करने के इच्‍छुक थे। उन्‍हें भय था कि कोई और उनसे पूर्व बाजी न मार ले।

संजीव कुमार के कार्यालय से वापस आते ही संध्‍या समय एक न एक पुत्री का पिता नित्‍य ही उपस्‍थित हो जाता और वही वही बातें उनसे बार-बार कुरेद-कुरेद कर पूछता....‘‘आपका बेटा घर कब आ रहा है? उसकी टे्रनिंग कब पूरी हो रही है? विवाह कब तक करने का विचार है? हम विवाह पर इतना-इतना व्‍यय करेंगे। इतना कुछ सामान देंगे। हमारी पुत्री गृहकार्य में अत्‍यंत दक्ष है, सुंदर है, सुशील है, ये है, वो है.....'' आदि....आदि।
कुछ दिनों की छुटिटयों में मानव घर आया तो सभी परिजनों ने उसे स्‍नेहपूर्वक घेर लिया। वर्षा दौड़कर वैवाहिक सम्‍बन्‍ध के लिए आए परिचय-पत्रों का पुलिंदा एवं रंगीन चित्रों के लिफाफे ले आई।

‘‘भइया देखो तो, कितनी सारी फोटो आई हैं.....तुम जरा छाँटो, देखें तुम्‍हें कौन-सी पसंद आती है।'' वर्षा ने प्रसन्‍नतापूर्वक उत्‍सुकता दर्शायी। ‘‘अरे! आते ही यह क्‍या शुरू कर दिया सबने?'' मानव ने तनिक चिढ़कर कहा। फिर दृढ़तापूर्वक सुहासिनी की ओर देखकर बोला-‘‘माँ, मैं अभी विवाह हर्गिज-हर्गिज नहीं करुँगा, इसलिए ये फोटो और ये पत्र यहाँ से फौरन हटवा दीजिए, प्‍लीज!''

‘‘बड़ा लाट साहब बन रहा है रे! यहाँ रात-दिन बेटी वालों ने नाक में दम कर रखा है। कब से तेरे आने की इंतजार हो रही है.....अब भी कहता है कि ये फोटो यहाँ से हटवा दीजिए। अरे देख तो ले....पसंद नहीं आए तो मना कर देना, बस!'' स्‍नेह मिश्रित डाँट के साथ कहते हुए भी सुहासिनी कुछ आवेश में आ गई।

मानव ने कुछ भी प्रतिउत्तर न देकर फोटो का पुलिंदा अनिच्‍छा से एक ओर पटक दिया ओर कमरे में जाकर पलंग पर लेट गया। कुछ ही देर में सुहासिनी धीरे से वहाँ पहुँच गईं और पुत्र के माथे पर हाथ फेरने लगीं। मन की भावनाओं पर अंकुश रखना उनके लिए कठिन होने लगा था....अपने स्‍वर को तनिक संयत और कोमल रखकर मानव को समझाने लगीं....

‘‘बेटा मानव, एक से एक बढ़िया रिश्‍ते आ रहे हैं। लोगों के पास इतना अकूत धन है, हम तो कभी कल्‍पना भी नहीं कर सकते, अरे बेटा, लाखों में कैश देने की बात तो वह खुद ही अपने मुँह से कहते हैं। माँगने की तो जरुरत ही कहाँ है? बस तेरे ‘हाँ' कर देने भर की देरी है। कार, बँगला, फ्रिज, रंगीन बड़ा टी.वी., कूलर, ए.सी. लाखों रुपये कैश, जेवर-कपड़ा, फर्नीचर क्‍या-क्‍या बताऊँ तुझे, तेरी एक निगाह पर अर्पण करने को तैयार हैं वे लोग.....मुझे तो अब पता लगा है कि प्रशासनिक सेवा की लाइन का क्‍या मूल्‍य है। बेटा तूने तो हमें तार दिया।'' माँ ने स्‍नेह से पुत्र का माथा चूम लिया।

मानव अन्‍यमनस्‍क को उठा....वह कुछ क्षण चुपचाप यूँ ही लेटा रहा फिर मन में आई खीझ और कड़ुवाहट को रोकने की पूरी चेष्‍टा करते हुए बोला-‘‘माँ, आप मेरी बात ध्‍यान से सुन लीजिए। पहली बात तो यह है कि मैं अभी विवाह नहीं करना चाहता। दो-तीन वर्ष तक मन लगाकर सर्विस करके स्‍वयं को स्‍थापित कर लूँ, तब इस विषय में सोचूँगा। इसके अतिरिक्‍त मैं विवाह में दहेज कतई नहीं लूँगा, यह मेरा संकल्‍प है।''

‘‘अरे बुद्धू ! हम लेने को कह ही कब रहे हैं! वह तो स्‍वयं ही देना चाहते हैं। सुन बेटा, उच्‍च समाज में खुद की इज्‍जत बनाए रखने के लिए यह भी जरुरी होता है।'' सुहासिनी हँस पड़ीं, मानों उन्‍होंने कोई ऐसा अनोखा नया मार्ग सुझाया हो जहाँ तनिक भी रपटन न हो। साँप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे। पर मानव इस विषय में और लंबी-चौड़ी बहस में नहीं उलझा। वह कुछ देर बाद वहाँ से उठकर अपने एक मित्र के घर मिलने के लिए चला गया। टे्रनिंग के पश्‍चात मानव की पोस्‍टिंग हुए दो वर्ष व्‍यतीत हो चले थे। अब वह डिप्‍टी कलक्‍टर बन गया था। उसके जिले में उसका बड़ा सम्‍मान था। उसके अधिकारी उसकी कार्यक्षमता से प्रसन्‍न थे। वह अत्‍यंत संयमी, न्‍यायप्रिय एवं अनुशासन का दृढ़ता से पालन करने और कराने वाला अधिकारी माना जाता था।

तृप्‍ति-वर्षा अब बड़ी हो चली थीं। सुहासिनी और संजीव कुमार को उनके विवाह की चिंता सताने लगी, किंतु वह जहाँ भी तृप्‍ति के विवाह की बात चलाते लोग काफी दहेज की माँग करते। उनके सम्‍मुख इस विषय में असमर्थता दर्शाने पर सीधा-सा उत्तर मिलता-‘‘आप भी कैसी बातें करते हैं संजीव कुमार जी, आपके यहाँ भला क्‍या कमी है? आपका बेटा तो अपने शहर का राजा है, आप बेटी को जो कुछ देंगे उससे वह ही सुख पाएगी। फिर कल जब आप अपने लड़के की शादी करेंगे तो कुछ नहीं लेंगे क्‍या?''

यह कैसी विडंबना है? अभी तो घर में न कुछ आया न गया, लोग अभी से ऐसी बातें करते हैं। संजीव कुमार निराश से हो चले थे। इस बार जब मानव घर आया तो माता-पिता दोनों ही उस पर बरस पड़े।

‘‘क्‍या बात है मानव, लगता है तुम किसी से प्रेम-व्रेम के चक्‍कर में पड़ गए हो! ऐसा है तो पहले से ही बता दो.... हम तो बड़े दुखी हो रहे हैं....तुम्‍हारा विवाह हो जाए तो तृप्‍ति और वर्षा का भी नंबर आए, लोग न जाने क्‍या-क्‍या आशाएँ लगाए बैठे हैं।''

काफी समझाने-बुझाने के पश्‍चात मानव विवाह करने के लिए राजी हुआ। उसके ‘हाँ' करते ही संपूर्ण परिवार में आनंद की लहरें दौड़ने लगीं। मानव ने ध्‍यानपूर्वक समस्‍त पत्रों को पढ़ा, चित्र देखे और उनमें से एक छाँटकर अलग कर दिया....तृप्‍ति और वर्षा ने भी चित्र देखे थे किंतु उन्‍हें दूसरी फोटो पसंद आई थी। खैर, तय हुआ कि परिवार में सभी की पसंद की एक-एक फोटो अलग निकाल ली जाए और उन पाँच लड़कियों को देख कर निर्णय ले लिया जाए। सुहासिनी का विचार था कि फोटो के साथ ही साथ उनके पिता की हैसियत पर भी पहले ही विचार कर लेना उचित होगा। कहीं बाद में परेशानी उठानी पड़े। आने वाली कन्‍या का पिता उतना न दे सके जितना किसी दूसरी जगह से उन्‍हें अधिकतम मिल सकता हो, क्‍योंकि मानव ने तो स्‍पष्‍ट ही कह दिया था कि वह दहेज लेने या माँगने के एकदम ही विरुद्ध है।

संजीव कुमार, सुहासिनी, तृप्‍ति, वर्षा और मानव सभी ने साथ जा-जाकर नगर के अंदर की एवं बाहर की भी कई लड़कियाँ देखीं। मानव को कमलिनी पसंद आई। कमलिनी ने इसी वर्ष इंगलिश से एम.ए. पास किया था। बी. एस-सी. उसने होम साइंस लेकर उत्तीर्ण किया था। अतः घर के सभी कार्यों में वह प्रवीण थी। देखने में वह अत्‍यंत सुंदर और आकर्षक तो थी ही, साथ ही बड़ी चुस्‍त भी थी। उसके चलने, बोलने का ढंग भी बड़ा ही मनमोहक था। यही नहीं, उसे सभी सोसायटी में जाने-आने का अभ्‍यास भी था क्‍योंकि उसके पिता एक बड़ी प्राइवेट कम्‍पनी में वरिष्‍ठ अधिकारी थे। स्‍कूल, कॉलेज के समारोहों एवं प्रतियोगिताओं में वह निरंतर भाग लेती रही थी। मानव को प्रत्‍येक दृष्‍टिकोण से कमलिनी अपने उपयुक्‍त लग रही थी, घर आकर उसने माँ और तृप्‍ति को अपने निर्णय से अवगत करा दिया था।

सुहासिनी के बिंदु मन भाई थी। वह नामीगिरामी सेठ मूलचन्‍द जी की इकलौती पुत्री थी। काफी समय से निरंतर वह अनके घर पर मिलने आती रही थी। तृप्‍ति और वर्षा के साथ उसने पर्याप्‍त घनिष्‍ठता स्‍थापित कर ली थी। इस बात को लेकर माँ-बेटे में बहस सी हो गई। सुहासिनी बोलीं-‘‘बिंदु में क्‍या कमी है मानव? हर बात में अच्‍छी है वह! रंग तो देखो कैसे दिप-दिप करता है? अंगे्रजी कैसी फर्राटेदार बोलती है, घर में उसके आगे-पीछे नौकरों की फौज दौड़ती है पर यहाँ आने पर तृप्‍ति के साथ चाय बनवाने पहुँच जाती है रसोई में।''

‘‘माँ, अभी तो तुम उस लड़की की इतनी प्रशंसा कर रही हो कल जब वह तुम्‍हें अपने घर के अथाह धन एवं नौकरों का ताना देकर काम-धाम करने से इनकार कर देगी तो तुम ही सबसे पहले तिलमिलाओगी.......तब सारा दोष तुम मेरे सिर मढ़ दोगी......कैसी है रे तेरी बहू! भारत में बेटे की माँ अपनी पसंद से चुनकर बहू घर लाती है, पसंद से माँग-माँग कर दहेज लेती है, तब भी विवाह के पश्‍चात बहू को लेकर सदा असंतुष्‍ट ही रहती है।''

सुहासिनी मानव का मुँह ताकती खड़ी रह गई.......। इतना-सा लड़का और इतनी बड़ी बात! वह भी उनके ही मुँह पर! मानो तमाचा जड़ दिया हो! आहत होकर इतना ही बोली-‘‘ठीक है बेटा, जो तुझे जँचे वही कर। कल को यह तो न कहेगा कि माँ ने अपनी पसंद की बहू लाकर मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी।''
कमलिनी के पिता को संदेश भिजवा दिया गया........। सुहासिनी गोद भराई की रस्‍म कर आई। टीके की तिथि पक्‍की हो गई। उसके दो दिन पश्‍चात ही विवाह रखा गया। सगे-सम्‍बन्‍धियों, परिचितों, मित्रों सभी को निमंत्रण-पत्र भिजवा दिए गए। तृप्‍ति और वर्षा खूब उल्‍लसित थीं। कमलिनी उन्‍हें भी पसंद थी। सबसे बड़ी बात तो यही थी कि वह इतनी योग्‍य होने पर भी बड़ी सीधी, सरल और सुशील थी। सुहासिनी ने बड़े मन से वधू के लिए ‘बरी' का सामान-जेवर, साड़ियाँ एवं श्रृंगार का समस्‍त सामान तैयार किया था। उन्‍होंने इसके लिए समस्‍त शहर छान मारा था.......चुन-चुन कर सुरुचिपूर्ण, नए डिजाइनों के वस्‍त्राभूषण खरीदे थे।

उस दिन कमलिनी के पिता घर पर आए हुए थे। वे संजीव कुमार से पूछ रहे थे कि उन्‍हें कितना रुपया नकद चाहिए और वह कितना किस मद में व्‍यय करवाना चाहते हैं। सुहासिनी और संजीव कुमार ने उनके साथ बैठकर समस्‍त सामान की सूची तैयार कर दी थी। कमलिनी के पिता कामता प्रसाद पुत्री के विवाह में चार-पाँच लाख तक व्‍यय करने के लिए उद्यत थे हालाँकि अब इतना भी सुहासिनी को काफी कम ही लग रहा था, कारण कि सेठ मूलचंद तो बीस लाख के ऊपर व्‍यय करने को तैयार थे....पर पुत्र की पसंद के समक्ष उनकी एक नहीं चली थी। इधर यह बातें हो रही थीं कि मानव वहाँ आ पहुँचा और आकर उनके पास ही बैठ गया।

उत्‍सुकतावश उत्‍साह में कामताप्रसाद ने मानव से भी पूछ लिया-‘‘बेटे, तुम्‍हारी कोई विशेष पसंद की वस्‍तु हो तो बता दो....हम देने का प्रयास करेंगे।'' यह सुनकर मानव को इस बात का आभास होने लगा कि वहाँ बैठ कर उसके माता-पिता उसके भावी श्‍वसुर के साथ क्‍या बातें कर रहे थे। लेन-देन की बातें हो रही हैं, जानकर उसके कान खड़े हो गए...वस्‍तुओं की ताजी बनी सूची वहाँ पर सामने ही पड़ी थी...मानव ने उसे उठाकर पढ़ लिया। ‘‘माँ यह क्‍या है?'' उसने किंचित नाराजगी भरे स्‍वर में पूछा।

सुहासिनी मानव के मन की बात समझती तो थीं ही....अपमानित होने के भय से स्‍वार्थवश वह बात का उत्तर टालकर घबराकर उठ गईं और अंदर चल दीं-‘‘देखती हूँ अंदर क्‍या हो रहा है....चाय भिजवाती हूँ।''
‘‘हम विवाह में केवल सवा रुपया और नारियल स्‍वीकार करेंगे। बेटी को देने के बहाने से भी आप कुछ भी नहीं दे सकेंगे...केवल उसके पहनने भर की कुछ नई साड़ियाँ ही, बाकी पहले से जो वस्‍त्र वह पहनती आई है, ताकि आते ही कमलिनी को कठिनाइयों का सामना न करना पड़े....मैं अपनी बात पर दृढ़ रहूँगा, यह बात आप गाँठ बाँधकर समझ लें।''

दृढ़ शब्‍दों में इतना कहकर मानव अंदर चला गया। कामता प्रसाद एवं संजीव कुमार एक दूसरे का मुँह ताकते अपमान के घूँट पीते बैठे रह गए....दोनों के बींच बड़ी देर तक मौन पसरा रहा...। कौन क्‍या कहे? विचित्र स्‍थिति थी। संजीव कुमार को ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों पुत्र सरे बाजार उनके मुख पर चपत जड़कर चला गया हो। कामता प्रसाद सोच रहे थे कि बिना कुछ दिए-लिये भी कहीं संभ्रान्‍त विवाह होते हैं। लड़की वाले की स्‍वयं की भी कुछ इज्‍जत-आबरू होती है, नाते-रिश्‍तेदार, घर-परिवार का मान-सम्‍मान होता है....इच्‍छाएँ होती हैं. ...वे किस-किस को सफाई देते फिरेंगे? वह बड़ी द्विविधा में फँसे थे, धीरे से बुदबुदाए-‘‘कहें तो नकद ही दे दूँ सब?''

पर संजीव कुमार चुप ही बैठे रहे...वह अपने पुत्र की विचारधारा से पूर्णरूपेण अवगत थे....हालाँकि वह उससे तनिक भी सहमत नहीं थे। उनकी मान्‍यता थी कि लड़के वालों को स्‍वयं माँगकर, लड़की के पिता को उसकी हैसियत से अधिक देने के लिए विवश हरगिज नहीं करना चाहिए, किंतु यदि वह अपनी इच्‍छा से, अपनी हैसियत के अनुसार पुत्री को उसका नया घर-संसार सँवारने के लिए कुछ देता है तो इसमें आपत्ति करने का क्‍या औचित्‍य है? यों तो लड़की को पिता की संपत्ति में व्‍यावहारिक रूप से संभव नहीं हो सकता, इससे कई नई कठिनाइयाँ उभरकर सामने आ सकती हैं...पर माता-पिता कुछ न कुछ भेंट स्‍वरूप तो सनातन काल से अपनी पुत्री को ससुराल जाते समय देते ही आए हैं। कल को जब वह अपनी पुत्रियों को ब्‍याहेंगे तो क्‍या दहेज नहीं देेंगे? है कोई ऐसा आदर्श व्‍यक्‍ति जो पुत्रियों को बिना दहेज लिए सम्‍मानपूर्वक ब्‍याहकर ले जाए?

सगाई का दिन आ गया। मानव ने पहले ही पिता को समझा दिया था कि अवसर पर बैंड-बाजे बजवाने तथा लोगों को आमंत्रित करने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। बिना किसी टीमटाम के सादे तौर पर घर के लोगों के बींच लड़की वाले आकर उसके तिलक करके सवा रुपया और नारियल शगुन स्‍वरूप दे जाएँ। इससे लेने-देने एवं प्रदर्शन की आवश्‍यकता किसी भी पक्ष को महसूस नहीं होगी।

‘‘पिताजी मैंने अपने विवाह के लिए कोर्ट में आवेदन पत्र दे रखा है। यदि माँ ने वहाँ से कुछ भी स्‍वीकारा तो मैं वैदिक पद्धति त्‍यागकर कमलिनी को सीधा कोर्ट में ले जाऊँगा और विवाह करके अपने साथ पोस्‍टिंग पर ले जाऊँगा. ...। यह बात आप भली-भाँति जान लें....मैं विवाह में देने-लेने के नाम पर लड़की वालों से मात्र सवा रुपया और एक नारियल ही लूँगा। आप लोगों को भी दहेज के नाम पर किसी प्रकार का सामान, कपड़े नगदी अथवा और कुछ भी नहीं लेने दूँगा.....मुझमें सामर्थ्‍य है, अपने नीड़ का निर्माण मैं स्‍वयं करूँगा। मानव के दृढ़तापूर्वक बारंबार ऐसा कहने पर और उसके हठी स्‍वाभाव को देखते हुए सुहासिनी और संजीव कुमार एकदम ही भयभीत हो उठे।

सुहासिनी के तो बरसों से संजोए स्‍वप्‍नों पर अचानक तुषारापात हो गया.....। मन ही मन, वह रुँआसी हो आई पर प्रत्‍यक्ष चिल्‍लाकर बोली-‘‘बेटा! अभी जोश में आकर यह सब कह रहा है.......इस हटधर्मी का परिणाम तो तुझे बाद में भुगतना होगा जब तेरे सारे दोस्‍त और सहकर्मी ठाठ से घर सजाकर रहेंगे और तू सारी जिंदगी घर की एक-एक छोटी-छोटी वस्‍तु को जुटाने में ही बिताएगा। अरे लाख कलक्‍टर बन या गर्वनर! घर में क्‍या वस्‍तु नहीं चाहिए? तेरी बीवी तुझी पर तानाकशी करेगी......उसे भी पूछा है इस विषय में, सारे जीवन हँसी का पात्र रहेगा तू और तेरा यह समाज-सुधार! फिर सोच देख......अभी तो बेटी घर में ही है.......। कल को तेरी बहनों के विवाह होंगे........। वहाँ से भी दहेज की माँग होगी, तब तू क्‍या देने से मना कर सकेगा?''

‘‘बिल्‍कुल माँ.......तुम देखती चलो......मेरी बहनें पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हैं.......उनके विवाह में मै एक पैसा भी दहेज के नाम पर नहीं दूँगा. ....।'' मानव ने आत्‍म-विश्‍वास के साथ हँसते हुए उत्तर दिया-‘‘और हाँ, माँ! आप अपनी बहू को अपनी सामर्थ्‍यानुसार ही सामान दें, इससे अधिक नहीं।'' सुहासिनी और संजीव कुमार के खूब-खूब समझाने, ऊँच-नीच बताने पर भी मानव टस से मस नहीं हुआ। कमलिनी के परिजन भी उसकी इस बात को लेकर काफी क्षुब्‍ध और क्रुद्ध थे। बार-बार मानव को समझा रहे थे। कमलिनी ने भी फोन करके मानव को स्‍वयं घर पर बुलाकर उससे विनम्र अनुरोध किया था-‘‘सुनिए, पिताजी अपनी इच्‍छानुसार जो हमें अपने आशीर्वाद स्‍वरुप देने के इच्‍छुक हैं उसे लेने में आपको क्‍या। स्‍मृति चिह्न हमारे साथ रहेंगे तो हमें भी जीवन में संबल ही प्रदान करेंगे।''

‘‘नहीं, एकदम नहीं.....।'' मानव वहाँ से एकदम उठकर चल दिया। ‘‘इतना दृढ़ निश्‍चयी नवयुवक समाज-सुधार करने का इच्‍छुक है, वह भी स्‍वयं से आरंभ करके ही, तब भी हम उसे गलत ही सिद्ध करना चाह रहे हैं, यह हमारी कैसी विकृत मानसिकता है? हम जब बात अपने पर आती है तो कितने स्‍वार्थी हो उठते हैं?'' कामता प्रसाद व्‍यथित हो कह उठे थे।

‘‘पर समाज में रहकर समाज के नियमों का पालन करना भी आवश्‍यक होता है। कल को यही सास-ननद और श्‍वसुर हमारी कमलिनी को मायके से खाली हाथ चले आने के लिए न जाने कैसे-कैसे ताने देंगी......तब सब मानव के समाज-सुधार की बात भूल जाएँगे, देख लेना।'' कमलिनी की माँ अपने नेत्रों में छलछला आए अश्रुओं को पोंछते हुए बोलीं।

कमलिनी के माता-पिता दोनों ही बड़ी द्विविधा, कठिनाई और मानसिक अवसाद से घिरे थे। दहेज न देने की बात ने प्रसन्‍नता और आनंद के स्‍थान पर मानसिक तनाव की सृष्‍टि कर दी थी.......। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत' पर क्‍या किया जा सकता था......? मानव के हठी स्‍वभाव के समक्ष वे हार चुके थे.......। जैसा मानव ने कहा, वह भारी मन से सब उसी प्रकार करते गए।

कहीं भी अनावश्‍यक प्रदर्शन और व्‍यर्थ का व्‍यय नहीं हुआ। अत्‍यंत सादगी के साथ पूर्ण वैदिक रूप से विवाह के समस्‍त कार्यक्रम पूरी निष्‍ठा और आस्‍था के साथ पूर्ण किए गए। सभी को विवाह में आनंद तो खूब ही आया. ......। मन को घबरा देने वाली भीड़-भाड़, तेज-तेज शोर-शराबा, लाखों रुपयों के विशाल पंड़ाल, अनावश्‍यक सज-धज और पूरे नगर को न्‍यौत कर चौंसठ पकवान बनवाने के स्‍थान पर वहाँ शांतिपूर्वक थोड़े से स्‍थान में सुरुचिपूर्ण स्‍वादिष्‍ट पेट में समा सकने वाले भोज्‍य पदार्थ परोसे गए। दोनों ओर के खास-खास रिश्‍तेदारों और परिचित-मित्रों को आमंत्रित किया गया। विवाह संपन्‍न होने के पश्‍चात तो सभी लोगों के मुख पर विवाह की प्रशंसा ही सुनाई देती थी। काफी समय के पश्‍चात लोगों ने शांतिपूर्वक किसी विवाह में जयमाल, फेरे, कंगना आदि कार्यक्रम जिनके लिए इतना बड़ा टीमटाम और आयोजन किया जाता है वह तो व्‍यर्थ के आडंबरों के बींच जल्‍दबाजी में पंडित पर ही छोड़कर संतोष कर लिया जाता है। सभी को ‘हम आपके हैं कौन?' फिल्‍म स्‍मरण हो आई और प्रसन्‍नतापूर्वक हँसते-मुस्‍कराते आत्‍मीय संवादों के साथ ‘विदा' की रस्‍म भी अदा की गई।

सुहासिनी और संजीव कुमार को आशा नहीं थी कि विवाह इतनी भव्‍यता के साथ संपन्‍न हो पाएगा। उनकी आँखें, खुल गइर्ं थीं। आजकल सभी लोग बच्‍चों के विवाह में विवशतावश ही तो इतना आडंबर करते हैं? कितना अपव्‍यय करना पड़ता है उन्‍हें? माता-पिता पुत्री को देने के चक्‍कर में एवं दिखावे में स्‍वयं को आकण्‍ठ कर्ज में डूबो बैठते हैं। क्‍या यह तर्कसंगत है? उन्‍हें अपने पुत्र मानव पर गर्व हो आया था सभी लोग तो इस आदर्श विवाह की प्रशंसा कर रहे थे। सुहासिनी को अब दहेज न लेने पर गिला नहीं रहा था। विवाह के सप्‍ताह भर बाद ही मानव, कमलिनी और अपनी माँ-बहनों कोे लेकर अपनी पोस्‍टिंग पर चला गया। उसने विवाह में होने वाले व्‍यर्थ के व्‍यय से बचाकर रखी रकम को पिता से अपनी गृहस्‍थी के लिए कुछ आवश्‍यक सामान खरीदने के लिए ले लिया था। कुछ रुपया उसने पिछले दो-तीन वर्षों में स्‍वयं भी जमा कर रखा था।

कमलिनी का स्‍वभाव घर-बार के सभी लोगों को पसंद आया। वह गृहकार्यों में भी दक्ष थी। अपने मायके में वह माँ के साथ पर्याप्‍त कार्य संभालती रही थी। पिता के निश्‍चित समय पर कार्यालय जाने-आने के कारण उनके घर में सभी कार्य सुनियोजित ढंग से समयानुसार निश्‍चित समय पर किए जाते थे। उसे सुबह उठकर सबकों प्रणाम और चरण स्‍पर्श करने की आदत थी। सुबह की चाय वह स्‍वयं अपने हाथों से तैयार करके सबके हाथों में कप थमाती। खाना वैसे तो खानसामा बनाता था किंतु वह स्‍वयं अपनी देखरेख में बनवाती। तृप्‍ति और वर्षा के साथ उसकी अच्‍छी पटने लगी। उन दोनों को डर था कि कॉन्‍वेन्‍ट में शिक्षित लड़की का स्‍वभाव न जाने कैसा होगा पर यहाँ आकर दोनों आश्‍वस्‍त हो गईं थीं।

मानव का एक सहपाठी सुरेश वहीं पर एस.पी. के पद पर कार्यरत था। उनकी यहाँ आपस में काफी घनिष्‍टता हो गई थी। जब कमलिनी और मानव का संपूर्ण परिवार वहाँ पहुँचा तो सुदेश ने उनके आते ही सर्वप्रथम उन्‍हें सपरिवार अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया था। उसका छोटा भाई अभिलाष भी उसी दिन वहाँ उसके पास दो सप्‍ताह की छुटिटयाँ लेकर रहने के लिए आया था। अभिलाष काफी हँसमुख, स्‍वस्‍थ और सुंदर नवयुवक था। उसने एक ही दिन में वर्षा और तृप्‍ति के साथ खूब दोस्‍ती कर ली। समवयस्‍क होने के नाते फिल्‍मों, टी.वी. आज की राजनीति आदि विषयों पर उनकी जमकर बातें होती रहीं।

तीन-चार दिन के बाद एक संध्‍या को अभिलाष अकेला ही उनके घर आ गया........। द्वार तृप्‍ति ने खोला। दोनों एक-दूसरे को देखकर कुछ देर तक ठगे से खड़े रह गए। फिर अभिलाष ने ही मौन तोड़ा......। ‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहेंगेी?''

‘‘अरे हाँ, आइये न! भइया-भाभी तो जरा मार्केट तक गए हैं। माँ संध्‍या-वन्‍दन में लगी हैं, वर्षा भी भइया के साथ ही गई है.......आप.......?'' ‘‘क्‍यों, आप तो हैं? आपसे ही बातें करुँगा.....।'' आपको कोई एतराज है क्‍या? उसकी द्विविधा और संकोच को मन ही मन ताड़कर वह खुल कर हँस पड़ा।

‘‘नहीं, नहीं, आइए.......आइए.......।'' तृप्‍ति कुछ सकपका गई....... लज्‍जा के कारण उसका मुख आरक्‍त हो उठा। उसने अभिलाष को ले जाकर कमरे में बिठाया.....। कुछ देर तक वे इधर-उधर की बातें करते रहे.......। तृप्‍ति को मन ही मन प्रतीक्षा थी कि भइया-भाभी आ जाएँगे या माँ पूजा से उठ जाएँगी.......। पर कोई भी नहीं आया। तब वह अभिलाष को बताकर दोनों के लिए दो कप कॉफी बना लाई। उसके समक्ष संभवतः यह प्रथम अवसर ही था, जब उसे अकेले ही किसी नवयुवक का सामना करना पड़ा हो.....। पर इस पहल में भी एक अनोखा आनंद था। जिसने उसे आत्‍म-विश्‍वास से भर दिया. .......। कुछ ही देर बाद वह सहज हो आई। अभिलाष भी उस शहर में स्‍वयं को अकेला ही महसूस कर रहा था......। भइया कार्यालय चले जाते.......और भाभी अपने घर के कार्यों में व्‍यस्‍त रहतीं। भइया की डयूटी ऐसी कि हर समय ही फोन खड़खड़ाते रहते और उन्‍हें समय-असमय भागना पड़ता। अतः इस परिवार से जुड़कर उसे अच्‍छा ही लगा था।

अब अभिलाष के साथ उनके सबके काफी कार्यक्रम बनने लगे। कभी साथ-साथ दोपहर के समय घर में ही वे सब ताश खेलते, तो कभी पिक्‍चर देखने जाते। कभी दोनों परिवार पिकनिक मनाते तो कभी कोई दर्शनीय स्‍थान का साथ-साथ अवलोकन करते। दोनों परिवार आपस में खूब घुलमिल गए। अभिलाष को तृप्‍ति का साथ विशेष रूप से भाता था.....। वह जहाँ भी जाता अधिकांश समय उसी के साथ बातें करता।

मानव का ध्‍यान स्‍वयंमेव ही इस ओर गया था। उसे दोनों की जोड़ी सोचने में काफी अच्‍छी लग रही थी......। सुदेश का परिवार बड़ा सज्‍जन परिवार था हालाँकि उनकी जाति अलग थी। उसे तृप्‍ति के हाव-भाव से भी ऐसा लगा मानों वह भी अभिलाष की ओर काफी आकर्षित है। एक दिन उसने बातों ही बातों में तृप्‍ति से अभिलाष के विषय में बात की तो उसे इस बात का पूरा विश्‍वास हो गया कि वह अभिलाष को पसंद करती है।

मानव ने अवसर देखकर सुदेश से इस विषय में बात की। तृप्‍ति उन्‍हें खूब पसंद थी। मानव ने तब बड़े ही स्‍पष्‍ट शब्‍दों में विवाह में दहेज न देने की अपनी प्रतिज्ञा उन्‍हें बता दी। सुदेश एवं उनके परिजनों को मानव का यह विचार अधिक उत्‍साहित नहीं कर पाया। अतः बात वहीं की वहीं रह गई।

अभिलाष के जाने का दिन पास आ गया था। उसे तृप्‍ति का साथ अच्‍छा लगता था। तृप्‍ति के साथ विवाह की बात सुनकर उसका हृदय पुलकित हो उठा था। अपनी कल्‍पनाओं में वह उसे सदैव अपने प्रत्‍यक्ष कार्यकलाप में सम्‍मिलित पाने लगा था। एक दिन बातों ही बातों में मानव के विवाह की बात चल पड़ी थी। कमलिनी उसे अपने विवाह की एलबम दिखा रही थी तभी कमलिनी से उसे विदित हुआ कि मानव ने खुद जिद करने पर भी विवाह में केवल सवा रुपया और नारियल ही स्‍वीकारा था। इसके अतिरिक्‍त कोई भी वस्‍तु या कैश आदि नहीं ली थी.....। उसके पापा-मम्‍मी तो इस बात से अभी तक व्‍यथित हैं। पर अपने दामाद के प्रति हृदय में जो आदर और सम्‍मान की भावना है वह बताई नहीं जा सकती। कमलिनी की इस बात से अभिलाष रोमांचित हो उठा। एक आदर्श पुरुष उसके समक्ष सशरीर उपस्‍थित था, इसका अभिलाष के हृदय पर बड़ा ही सकारात्‍मक प्रभाव पड़ा। उसने घर जाकर अपने भाई-भाभी से इस विषय में बात की और उन्‍हें इस बात के लिए मना लिया। तृप्‍ति तो स्‍वयं भी लेक्‍चरर थी और अच्‍छा कमा रही थी। तब दोनों मिलकर अपनी गृहस्‍थी की गाड़ी सुचारू रूप से चलाने में समर्थ थे, फिर किसी के दिए से कितने समय तक किसी का घर भरता है? उसने भाई से कहा।

और तब सचमुच ही बिना कुछ लिए-दिए ही तृप्‍ति का विवाह अभिलाष के साथ एक महीने पश्‍चात हो गया। फोन की घंटी बजने से सुहासिनी तंद्रा से जाग उठीं......वह सोचने लगीं, क्‍यों हम भारतीय दहेज के लिए इतना हो-हल्‍ला मचाते हैं? ये सड़ी-गली प्रथाएँ बंद क्‍यों नहीं करते? बिना दहेज लिये-दिए सब ही यदि बच्‍चों के विवाह करने लगें तो जीवन की बहुत बड़ी समस्‍या, आजीवन तनाव, कन्‍याओं के प्रति बढ़ती उपेक्षा सब स्‍वयं ही दूर हो जाएँ। दृढ़ निश्‍चय एवं आत्‍म-विश्‍वास की डोर पकड़ लें तो यह असंभव भी तो नहीं है, आखिर अब ये उनके स्‍वयं के परिवार में ही घटित हो गया है......आवश्‍यकता है, एक नई शुरूआत की।

''' आस्‍था, 5-बी/20, तलवण्‍डी, कोटा (राज.) 

(2) बबली तुम कहाँ हो ?

डॉ0 अलका पाठक
आज बस में बबली की सास मुझे मिली थीं। मिली नहीं मेरे पीछे बैठी थीं। बबली की सास और एक न जाने कौन महिला। हो सकता है बबली की सास की बहन अथवा ननद हो। सास उन्‍हें कह रही थीं ‘जिज्‍जी'। सो, दोनों में से कुछ भी होना सम्‍भव है। तो बबली की सास और जिज्‍जी। अब दिल्‍ली शहर में इतनी बसें और इन इतनी बसों में इत्त्ो-इत्त्ो आदमी क्‍या पता चलता है कि कहाँ का है कौन, कहाँ से आया, जाएगा कहाँ। पर एक बात पक्‍की है कि दोनों मेरठ की नहीं थीं क्‍योंकि बबली की सास कह रहीं थीं कि मेरठ की लड़कियाँ बड़े-बड़ों के कान काटती हैं। पता नहीं कि बबली की सास कहाँ रहती है, कहाँ जाती हैं, आती हैं? कहाँ जा रही थीं पर इत्ती बात समझ में आई कि बबली के पति के लिए रिश्‍ता आया है, लड़की देखने जा रही थीं।
बबली मरी नहीं है, तलाक भी नहीं हुआ है, पर पीहर में है। बबली की सास का कहना है कि -‘‘जिसे गरज होगी लेते रहेंगे तलाक, फिरें कचहरी मारे-मारे, हम तो लड़के वाले हैं। हमारी क्‍या बेइज्‍जती और सोनू कौन-सा सरकारी मुलाजिम है कि दूसरी करने से नौकरी छूट जाएगी। घर का काम है। दूसरी भी अगर बबली जैसी कंगलों की बेटी आ गई तो उसकी छुटटी करते कौन देर लगेगी?''
जिज्‍जी ने पूछा-‘‘सोनू तो मना नहीं करेगा?''
बबली की सास हँसीं, बोलीं-‘‘मरद की जात कै दिन सोक मनावै।
दूसरी का मुँह देखा और भूल गया कि कोई थी भी कभी कि नां!'' जिज्‍जी ने मान लिया। बात ठीक। मरद की जात होती ही ऐसी है। रोवेगी तो बबली टुसुर-टुसुर। कंगलों के घर जन्‍मी तो रोयेगी ही। बताओ ऐसा भी कभी हुआ है कि लड़की छाती पर बैठी हो और माँ ने कत्तर तलक नहीं जोड़ कर रखी। बेटियों की माँएं तो छोछक की धोती भी उठाकर धर देती हैं कि बेटी के दहेज में जायेगी। गरीब-से-गरीब की बेटियाँ कशीदा सीख-सीख कर दहेज जोड़ती हैं। और नहीं तो क्रोशिया से थालपोश, मेजपोश बुन-बना लेती हैं। गुड़िया, बटुआ, पंखा, बनाती ही रहती हैं। न कुछ हुआ तो मोमजामे की पुरानी थैलियों के कंगरों पे बटन टाँक-टाँक ही ऐसे बटुए बनते हैं कि महाराज देखते ही रह जाओ। बेटी जात। मारी भली कि सम्‍हारी भली। पर बबली की महतारी को देखो लौंडिया से कुछ दहेज का सामान नहीं बनवाकर रखा। ठूँठ एम.ए.। स्‍कूल में मास्‍टरनी। बस, बबली का तो दिमाग आसमान पर। सरकारी नौकरी। परमानेंट। सोनू का काम नया है, जमते-जमते जमेगा। दे-देता ससुर दो-ढाई लाख। काम जमने में क्‍या देर थी? देर तो पैसे की है। पैसा हाथ हो तो सुरग हथेली पर बना ले। बाप ने नंगी-बूची विदा कर दी, फिर मरद का सुख भी चाहिए! मैंने तो फटकने न दी। ताक-झाँक तो बहुत की। पढ़ी-लिखी पकी उमर की। सोनू को बचाकर रखना मुश्‍किल हो गया पर तुम डाल-डाल हम पात-पात! दो दफे रह गई। पर मजाल है.......अब पड़ी रह बाप के घर। दे नहीं सकता था तो अब खिलाए! अब बताओ कुल इक्‍कीस हजार नकद! इक्‍कीस हजार में क्‍या होवे है? छह तोले तो सोना चढ़ाया था। धोती-साड़ी थी पाँच। हो गया पूरा।
‘‘गहने बबली ले गई?''
‘‘ठेंगा, हमने तो पहले ही अंडर कर लिया था। सोना-कपड़ा।''
‘‘अपने पीहर का?''
‘‘पीहर का क्‍या था? गले का, चार चूड़ी और चटर-मटर.......।''
‘‘वो ले गई?''
‘‘कैसे ले जाती? धरवा लिया पहले ही दिन। लच्‍छन न देखे थे? कैसे सिर उघाड़े बैठी थी?''
‘‘ब्‍याह के आई बबली। मैं बार-बार सिर ढाँपूं और आँचल सिर पे टिके ही नहीं झट सरक जाए। पता नहीं सरक जावै था कि मरी जान बूझ कर सरका लेवे ही। बस, उसके यों ही चलित्तर देखकर माथा ठनक गया कि यों नहीं है घर-गृहस्‍थी वाली। नौकरी करती है तो क्‍या जेठ-ससुर के सामने सिर उघाड़े डोलेगी? फिर सोनू के पापा भी कहने लगे कि हमने तो बेटे की ससुराल का सूट पहन कर नहीं जाना। कंगलों ने कमीज-पैंट में किस्‍सा काट दिया।''
‘‘बस, भेज दी पीहर। अब बसानी है लौडिया तो बात कर आदमियों जैसी। न तो घर लगे ब्‍याह का-सा। जो आवै सो ही पूछे कि सोनू का ब्‍याह हुआ, कैसा हुआ? घर तो ब्‍याह का-सा लगा नहीं। एक कोने में तो सोफा-सा पड़ा है, अलमारी दी है पर च�दर देखो कितनी पतली ढम-ढम वाजै। क्रीम-पौडर पोतने की मेज तक न दी। वकसिम-सी पकड़ा दी। न टी.वी., न फ्रिज, वी.सी.आर., बर्तनों के नाम पर देखो पर एक डिनर सैट। परात, कुल ग्‍याहर थाल, तास, कलसा और टोकनी। लो, हो गए बर्तन।''
बबली की सास के दुःख से जिज्‍जी द्रवित थीं। लत्ता-कपड़ा पूछा! कुल ग्‍यारह साड़ियाँ बबली की, और एक-एक नाम से सास-नन्‍दों की। चोले की और भात की। बस। गुडडो बक्‍स खुलाई की धोती लेने लगी तो मैंने कहा रहन दे गुडडो। नंगी क्‍या नहायेगी, क्‍या निचोड़ेगी? पर शाबाश है, महतारी को। ऐसी सिखा-पढ़ाकर भेजी कि ऐसी बनकर बोली लौंडिया कि सब आपकी है। जो और जितनी चाहिए ले लीजिए! बता कुल ग्‍यारह तो धोती लेकर आई है उसमें से कितनी दे देगी और कितनी पहन लेगी।
हमारे नन्‍दोई तो दहेज देखते ही बोले कि लौटा दो लौंडिया को दहेज के संग ही। आज ही पटेल नगर वालों का रिश्‍ता ले लेते हैं। हमारी भी कुछ इज्‍जत है कि नहीं। क्‍या दो-चार जने देखेंगे, क्‍या थू-थू करेंगे। कहाँ लड़के को भेज दिया। बस जी, ‘‘हमने कहा जै राम जी की।''
‘‘बबली के भइया-भतीजे आए लेने। पूछने लगे कि कब विदा कराने आओगे। टाल दिया। पंडित से महूरत निकलवा कर खबर करते हैं। अब करती है खबर हमारी जूती। काट चक्‍कर। काटे। कहने लगा कि लिवा लाओ बबली को। तब खुलकर बात हुई पैसों की। बोला-पहले बताते। न होता तो मैं रिश्‍ता न करता। यह तो हम भी जानते हैं। हमने कहा कि इतनी जमीन-जायदाद है, कर दे सोनू के नाम। और कर जा बबली को। लेने तो हम जाते नहीं। वो भी एक ही काइयाँ निकला। बोला-बबली के नाम कर दूँगा। बस, हमने कर दी राम-राम, श्‍याम-श्‍याम! तुम्‍हारा रास्‍ता अलग-हमारा रास्‍ता अलग। जो बता दी उससे एक सूत इधर नहीं, उधर नहीं। हम डटे रहे। बेटी का बाप है। जायेगा कहाँ? झख मार कर आएगा हमारी देहरी पर।''
‘‘आया फिर?''
‘‘आया? अजी बबली भेज दी। सोनू की दुकान पर। फोन किया सोनू ने।
मैं गई। मैंने पकड़ी चुटिया और निकाल बाहर करी कि जवानी इतनी जोर मार रही है तो बैठ जा बाजार में। बहू-बेटियाँ दान-दहेज के संग बसै करैं हैं ः समझी? बड़ी मास्‍टरनी बनै थी। टुसुर-टुसुर रोकर भागती ही नजर आई। मैं पढ़ी ना हूँ, गुनी तो हूँ-ऐसी एम.ए., बी. ऐओं को तो यों ही चरा दूँ!''
‘‘अब ये रिश्‍ता?''
‘‘पहले ठहर कर ली। नकद एक लाख। स्‍कूटर, टी.वी., फ्रिज, वी.सी. आर और इक्‍कीस तोले सोना दे रहे हैं। और सामान की लिस्‍ट दे दी। बिल्‍कुल चूँ-चपड़ न की।''
‘‘पहली की ना पूछी?''
‘‘पूछ करके क्‍या करता? बता दी कि लौंडिया कहीं और लगी हुई थी। ऐसी को रखता कौन? बबली के नाम सतीश से चार चिटठी लिखवा रखी है। जरुरत पड़ेगी तो दिखा देंगे।''
‘‘सतीश?''
‘‘सोनू का दोस्‍त नहीं है, दालमिल वालों का? वही।''
मुझे नहीं पता बबली कि तुम कौन हो, कहाँ हो। तुम्‍हारी सास से पता पूछती तो वह मुझे बताती तो नहीं, पर इसे पढ़ो तो जान लेना कि तुम्‍हारा अपराध यह था कि ब्‍याह पर तुम्‍हारे सिर पर पल्‍ला ठहरता नहीं था। सरक-सरक जाता था। तुमने खाना खाकर अपने जूठे बर्तन नहीं माँजे थे,़ महरी तो बहुओं की जूठन उठाती नहीं। उसको कौन-सी साड़ी आई थी? सोनू की नाड़ी मनुष्‍य की और तुम्‍हारी मृग। तुम्‍हारी सास को पंडितजी ने कहा है कि नाड़ी-दोष है और उससे बड़ा दोष है कि तुमने एक तो औरत का जन्‍म लिया, दूसरा यह कि गरीब बाप के यहाँ लिया। समझ गई हो न। सोनू का रिश्‍ता हो गया होगा। सुबह तुम्‍हारी सास बात पक्‍की करने ही जा रही थीं। मैंने तुम्‍हारी सास से तुम्‍हारा पता पूछने को मुँह खोला था पर निकला यह कि - ‘‘तुम्‍हारी बेटी नहीं है क्‍या?'' न तो तुम्‍हारी सास की समझ में आया, न मेरी, पर बबली क्‍या तुम जानती हो कि इस सवाल को पूछने में मेरी आँख से जो गिरा वह आँसू तुम्‍हारा तो नहीं था?
तुम कहाँ हो बबली?
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2-सी, सूर्या अपार्टमेण्‍ट, सेक्‍टर-13, रोहिणी, दिल्‍ली-85
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(3) वैधव्‍य नहीं बिकेगा

पं0 उमाशंकर दीक्षित
पूर्व मंत्री सेवकराम घर में मसनद के सहारे बैठे थे। उनके सामने आर्य समाज के मंत्री और सामूहिक विधवा-विवाह समिति के संयोजक पं. हर्षवर्धनशास्‍त्री विराज मान थे।
सेवकराम जबसे एम.एल.ए. का चुनाव हारे हैं, तब से पूरे पाँच माह के निरन्‍तर विश्राम के बाद आज शास्‍त्रीजी के विशेष आग्रह पर सांयकाल एक सार्वजनिक सभा को सम्‍बोधन करेंगे क्‍योंकि चुनाव हार जाने पर उन्‍हें ऐसा सदमा पहुँचा कि पूरे एक माह 10 दिन तो अस्‍पताल के बैड पर पड़े पड़े काटने पड़े। इसके बाद छैः माह तक डॉक्‍टरों ने उन्‍हें पूर्णरूप से विश्राम करने का परामर्श दिया था। उन्‍हें दिल का दौरा क्‍या पड़ा- वे एक दम सार्वजनिक जीवन से ‘कट आफ' हो गये।
आज इस सुअवसर को वे अपने हाथ से नहीं निकलने देना चाह रहे थे। अतः अपनी आँखों को अजीब तरह से मिचकाते हुए शास्‍त्री जी से बोले-‘‘देखिये हर्षवर्धन जी' वैसे तो डाक्‍टरों ने मुझे कम्‍पलीट रैस्‍ट के लिए कहा है, परन्‍तु भला आपका अनुरोध मैं कैसे टाल सकता हूँ। फिर विधवा-विवाह जैसी ज्‍वलन्‍त सामाजिक समस्‍या का निराकरण तो हमको और आपको मिलकर करना ही है।'' ‘आपसे मुझे यही आशा थी-मंत्री जी।' शास्‍त्री जी ने दोनों हाथ जोड़ते हुए आभार व्‍यक्त किया।
फिर सामने दीवार पर नजर फेंकते हुये भूतपूर्व मंत्री सेवकराम ने कहा-‘‘देखो शास्‍त्री जी मुझे चुनाव हारने का बिल्‍कुल ही गम नहीं है। मैं तो राजनेता कम और सामाजिक कार्यकर्ता अधिक हूँ। मेरे जीवन का तो प्रथम लक्ष्‍य समाज सेवा ही है। अब उसे और बखूबी कर सकूँगा।'' अच्‍छा तो बताओं मुझे कितने बजे आपकी सेवा में आना है।''
‘‘ठीक पाँच बजे''- शास्‍त्री जी ने बताया। ‘प्रचार तो खूब करा दिया है न', होठों को निपोड़ते हुए पुनः सेवकराम ने पूछा।' इसमें कोई कमी नहीं करनी चाहिए। सही प्रचार ही हर कार्यक्रम की सफलता है।''
‘इसकी आप चिन्‍ता न करें''- शास्‍त्री जी ने उठते हुए कहा। ‘अच्‍छा -नमस्‍ते जी', कहकर शास्‍त्री जी चले गए।
सायँ पाँच बजे........ म्‍यूनीसिपल हाल भीड़ से खचाखच भरा था। सभी सम्‍भ्रान्‍त और विशिष्‍ट व्‍यक्ति भी उपस्‍थित थे। वे सभी प्रथम पंक्‍ति में बैठे हुए थे। सर्वप्रथम कार्यक्रम के संयोजक हर्षवर्धन शास्‍त्री ने समारोह का उद्देश्‍य बतलाया- ‘‘भाइयों और बहनों! आज इस समारोह का आयोजन इन सामने बैठी हुई सैकड़ों विधवा बहनों के विकास को लेकर किया गया है। हमें इनकी परेशानियों को मिटाने का रास्‍ता तै करना है। आज आप और हम सबको मिलकर इनको सामाजिक-जीवन में आगे बढ़ाने और इनके सुन्‍दर सुनहरे भविष्‍य के बारे में सोचना है। आज के इस शुभ अवसर पर सामाजिक जीवन में महान क्रान्‍ति लाने वाले सच्‍चे समाज सेवी एवं विधवा विवाह के महान समर्थक भूतपूर्व मंत्री माननीय सेवकराम जी ने पधार कर हमारा गौरव बढ़ाया है। हम उनके विशेष आभारी हैं। मैं उनसे निवेदन करता हूँ कि वे इस समारोह का विधिवत-उद्घाटन करते हुए अपने दो शब्‍दों द्वारा हमारा मार्ग दर्शन करें।' तभी जोरदार तालियाँ बज उठीं।
चुस्‍त पाजामा, खादी की शेरवानी और सफेद गांधी टोपी में सेवकराम जी खूब फब रहे थे।
भूतपूर्व मंत्री जी ने उठकर सर्वप्रथम भरपूर उपस्‍थिति पर नजर डाली-सोचा भीड़ तो उत्‍साह वर्धक है। फिर गला साफ करते हुए बोलना प्रारम्‍भ किया- ‘‘भाइयों और बहिनों! इधर कुछ समय से मैं अस्‍वस्‍थ चल रहा हूँ। डॉक्‍टरों ने मुझे घूमने- फिरने के साथ अधिक बोलने पर भी अंकुश लगा रखा है। परन्‍तु आज आप लोगों के दर्शनों की लालसा ने मुझे यहाँ आने को विवश कर दिया। इसे मैं रोक न सका। मैं इन हजारों दुखित विधवा बहिनों के बीच अपने को पाकर धन्‍य हो गया हूँ। काश ईश्‍वर मुझे भी इनके दर्द का थोड़ा सा हिस्‍सा दे देता तो मैं और भी धन्‍य हो जाता। (फिर जोरदार तालियाँ बजने लगीं।) क्‍योंकि मैं राजनीतिज्ञ बाद में हूँ और समाज सेवक पहले। इसलिए कहता हूँ हमारी ये बहिनें एक प्रकार से सामाजिक अन्‍याय से पीड़ित हैं। ये भाग्‍य के साथ-साथ हमसे यानी समाज से सताई हुई हैं। हमने इन्‍हें अंधविश्‍वास और रूढ़िवादिता से मुक्त नहीं कराया। इनमें साहस नहीं जगाया। जिससे बहुत सी बहिनें पतन के गर्त में गिर गईं। बहुत सी बहिनों को अपना तन तक बेचने को मजबूर होना पड़ा।
मैं आज के इस समारोह में युवकों से प्रार्थना करता हूँ कि वे इस सामाजिक क्रान्‍ति में आगे आयें और इन बहिनों को अपनायें। साथ ही मैं इस समारोह का विधिवत उद्घाटन करता हूँ और यहाँ इन विधवाओं के विवाह में व्‍यय होने वाले धन के लिए दस हजार एक सौ एक रूपये की एक छोटी सी भेंट भी अर्पण करता हूँ।
तालियों की गड़गड़ाहट से फिर हाल गूँज उठा। तालियों के शोर में ही उन्‍होंने यह भी घोषणा कर दी कि यदि मेरा बेटा भी कभी विधवा विवाह का प्रस्‍ताव मेरे समक्ष रखेगा तो मैं कभी इन्‍कार नहीं करूँगा और अपना सौभाग्‍य समझूँगा।'' इतना कहते हुए सेवकराम जी ने समारोह का उ�घाटन करते हुए शास्‍त्री जी को दस हजार एक सौ एक रूपये का चैक भेंट कर दिया फिर अस्‍वस्‍थता की बात कहते हुए सभी से क्षमा याचना कर विश्राम हेतु घर लौट आये। अगले दिन यह समाचार सभी समाचार पत्रों में बड़े-बड़े शीर्षकों में प्रमुख खबरों में छपा। सेवकराम जी अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो रहे थे। उनकी पत्‍नी और बच्‍चे कह रहे थे कि आपके कल के भाषण ने वास्‍तव में आपकी अच्‍छी शोहरत मचा दी है। आगामी उप चुनावों में आपकी सीट पक्‍की है।
तभी टेलीफून की घंटी बजी। सेवक राम ने बड़े उत्‍साह से रिसीवर उठाया।
‘‘मैं कीमती लाल बोल रहा हूँ- मंत्री जी।''
‘कहिए सेठ जी कैसे याद किया?' - भू.पू. मंत्री जी बोले।
‘‘कल के आपके विचारों से मैं बहुत प्रभावित हुआ। वास्‍तव में हमारे नेताओं और समाज सुधारकों में ऐसी भावना आ जाये तो देश का उद्धार हो जाये। इसी खुशी में मैं आपको अपने घर डिनर के लिए आमन्‍त्रित कर रहा हूँ। मुझ गरीब का घर भी आप जैसे समाज सुधारकों की चरण-धूल से पवित्र हो जायेगा।'' सेठ जी ने कहा।
‘‘आप और गरीब‘, सेठ कीमती लाल जी।'' सेवकराम जी ने कहा। आप तो उद्योग की मानी हुई हस्‍ती हैं। सेठ जी कहिए-आपकी सेवा में कितने बजे हाजिर हूँ।'
‘मंत्री जी कल जरा जल्‍दी ही आ जायें तो इधर-उधर की कुछ और बातें भी हो जायेंगीं'- सेठ जी ने कहा।
सेवक राम आज का दिन अपने लिए शुभ मान रहे थे। वे भीतर से बहुत प्रसन्‍न थे। कई सालों से सेठ कीमती लाल को अपने पक्ष में करना चाहते थे और आज वह स्‍वयं उनको डिनर के लिए आमन्‍त्रित कर रहे हैं। अबके चुनाव का पूरा व्‍यय उन्‍हीं से करवाया जायेगा। उनके प्रभाव से वोट भी अच्‍छे मिल जायेंगे। अरे, अब जब मैं मिनिस्‍टर नहीं हूँ तो अभी से क्‍यों न चुनाव गठबंधन कर लिया जाये। उनके सहयोग से अपने पुत्र नितिन को क्‍यों न कोई छोटा-मोटा उद्योग खुलवा लिया जाय; आदि विचारों से हवाई पुल बाँधने लगे। सेवकराम ने सोते-सोते न जाने कितनी बड़ी-बड़ी योजनायें बनालीं।
आज की सुबह उनके लिए विशेष कीमती थी। रह-रह कर उनके सामने सेठ कीमती लाल की सूरत आ रही थी। समय बहुत धीरे-धीरे खिसक रहा था। ठीक ग्‍यारह बजे सेवक राम जी कीमती लाल की कोठी पर पहुँचे। पोर्च में गाड़ी पहुँचते ही सेठजी ने स्‍वयं आकर उनकी अगुवाई की। आधुनिक ढंग से सुसज्‍जित बहुत ही खूबसूरत कमरे में उन्‍हें बिठाया गया। वहाँ प्रत्‍येक वस्‍तु अधिक मूल्‍यवान और विदेशी थीं। सेठ जी का जीवन स्‍तर देखकर तो मंत्री जी मंत्र-मुग्‍ध हो गये। तभी एक काली सी लड़की बेशकीमती वस्‍त्रों में लिपटी एक ट्रे में दो चांदी के गिलासों में जल लेकर उपस्‍थित हुई। उसके नैन-नक्‍श बहुत आकर्षक थे। रंग अवश्‍य आवश्‍यकता से अधिक काला था। बड़ी-बड़ी आँखें एकदम मोती जैसे चमकते दाँत, और गदराया शरीर।
सेवकराम उसे एकटक देखते रह गये। उनकी तन्‍द्रा तब भंग हुई जब सेठ जी ने उनसे कहा-मंत्री जी यह मेरी लाडिली बेटी है- क्षमा।'' फिर सेठ जी ने अपनी बेटी से कहा- ‘‘बेटी-थोड़ी देर बाद दो कप काफी और......।'' हाँ पापा, कहकर क्षमा गिलास उठाकर अन्‍दर चली गई।
क्षमा के चले जाने के पश्‍चात कीमती लाल जी ने एक लम्‍बी सांस खींचकर अपनी बात कहना प्रारम्‍भ किया- ‘‘आपको क्‍या बताऊँ मंत्री जी। यह लड़की विधवा हो जाने पर बड़ी अन्‍तर्मुखी हो गई है। अपने जीवन को व्‍यर्थ समझने लगी है। मुझे भी इसके भविष्‍य के लिए कोई रास्‍ता नहीं सूझ रहा था। परन्‍तु कल के आपके भाषण ने मुझे एक नई रोशनी दी है। मेरे पथ को प्रशस्‍त कर दिया है। सेवकराम अत्‍यधिक उत्‍साहित होकर बोले- ‘‘सेठ जी मैं भी विधवा विवाह के एकदम पक्ष में हूँ। हमें नव युवकों को इस दिशा में प्रेरित करना चाहिए। आप भी दकियानूसी छोड़कर अपनी बिटिया का विवाह कर दें।
तब तक क्षमा बिटिया काफी के दो प्‍याले और कुछ नाश्‍ता एक ट्रे में संजोये हुए लेकर आ गई और सामने रखकर पुनः अन्‍दर चली गई। इस बार उसकी ड्रैस चेन्‍ज थी। वह साड़ी और भारतीय परिधान में और भी आकर्षक लग रही थी। सेठ जी ने काफी का प्‍याला मंत्री जी की ओर बढ़ाते हुए अपनी बात आगे बढ़ाई- ‘‘सेवक राम जी मेरी बेटी के बारे में आपका क्‍या खयाल है?'' ‘‘किस विषय में'' - वे गम्‍भीर होकर बोले।
कल आपने कहा था कि मेरे बेटे ने यदि विधवा विवाह का प्रस्‍ताव.....।''
अचानक सेवकराम को जैसे साँप सूँघ गया हो। एकदम बड़े-बड़े नेत्रों से वे सेठ जी को घूरने लगे। फिर कुछ प्रश्‍न भरी दृष्‍टि से बोले- ‘‘ठीक ही तो कहा था मैंने। ठीक है इसमें मुझे कोई एतराज नहीं। परन्‍तु यह मेरे बेटे नितिन का निजी मामला है। मैं उसकी राय जानकर ही बताऊँगा- आपको।''
देखिए वैसे तो मुझे हजारों रिश्‍ते मिल सकते हैं, एक करोड़ पति बाप की बेटी के लिए वरों की क्‍या कमी है। परन्‍तु मैं अपने बराबर का स्‍टेटस चाहता हूँ।'' - सेठ कीमती लाल ने फरमाया।
मैं इस पर गम्‍भीरता से विचार करूँगा। आप विश्‍वास रखें। ये तो मेरे आदर्श की बात है।'' -मंत्री जी ने कहा।
भोजन के उपरान्‍त दोनों दिग्‍गजों में घुट-घुट कर बातें होने लगीं। धीरे-धीरे यह खबर समाज में फैल गई। नेताजी सेवकराम अपने लड़के की शादी सेठ कीमती लाल की विधवा पुत्री क्षमा से करेंगे। ये खबरें समाचार पत्रों ने भी बड़ी-बड़ी सुर्खियों में प्रकाशित कीं। सभी ने इस विधवा विवाह की खूब प्रशंसा की। सगाई की रस्‍म भी बड़ी सादगी से सवा रूपये में सम्‍पन्‍न हुई। अब विवाह का दिन भी समीप आने लगा।
पूर्व मंत्री सेवकराम ने एक दिन सेठ कीमती लाल को अपने बंगले पर बुलाया।'' मुझे लगता है कि इस विवाह सम्‍बन्‍ध में कुछ विध्‍न आने वाला है।'' मंत्री जी ने कहा। ‘‘ये आप क्‍या कह रहे हैं?'' कीमती लाल ने साश्‍चर्य पूछा।
‘‘मैं ठीक ही कह रहा हूँ सेठ जी! आपका बड़ा बेटा मेरे बेटे को आपकी कम्‍पनी में फिफ्‍टी परसेन्‍ट शेयर देने को राजी नहीं है। मैंने पहले ही कहा था कि मेरे नितिन को आपकी कं. में फिफ्‍टी का शेयर चाहिए?''
‘‘अब आप इस जिद पर मत अड़िए मंत्री जी। आपके बार-बार इन्‍कार करते करते मैं आपको एक करोड़ का एक नया फ्‍लैट तथा एक कार देने का वायदा कर चुका हूँ। आप जैसे आदर्शवाले समाज सुधारक को अधिक लालच में नहीं पड़ना चाहिए।'' -सेठ कीमती लाल ने चश्‍मा ठीक करते हुए कहा।
‘‘मैं और लालच-छिः छिः। मुझे कुछ नहीं चाहिए। यह तो आपका और नितिन का आपसी मामला है। मुझे तो आपने जो कहा है उससे अधिक कुछ भी नहीं चाहिए।'' - मंत्री जी ने मुस्‍कराते हुए कहा। नितिन ने मुझसे साफ कह दिया है, कि वह आपकी कंपनी में आधा हिस्‍सा तो चाहेगा ही। अब विचार लीजिए।
‘‘अब आप मुझे नाजायज रूप से ठग रहे हैं। मंत्री जी?'' कुछ नाराजगी भरे लहजे में कीमती लाल ने कहा। ‘आपके आदर्श और उपदेश क्‍या बिलकुल दिखावटी हैं?''
‘‘मैं इस में कर ही क्‍या सकता हूँ, सेठ जी।'' - रूखेपन में सेवकराम ने कहा।
कीमती लाल जी यह कहकर उठते बने- ‘‘आप कैसे समाज सुधारक हैं- मैं इस पर अभी सोचूँगा। तभी कोई निर्णय ले पाऊँगा।''
‘‘हाँ हाँ सोचलें। इस पर गम्‍भीरता से सोचें। यह आपकी इज्‍जत का भी प्रश्‍न है। देखिए एक तो आपकी बेटी काली है और उस पर भी विधवा। तब भी मैंने बेटे से हाँ करवा दी। अब यह मामला मेरे बेटे का सर्वथा निजी है। इसमें मैं भी कुछ दखल नहीं दे सकता।''
कीमती लाल उठकर चलते बने। सेवकराम अकेले कमरे में मसनद के सहारे बैठे रहे। एक अजीब सी नीरसता थी कमरे में। बैठे बैठे वे ख्‍वाबों के महल बनाने लगे।
सेठ कीमती लाल अपने घर आकर अपने कमरे में निढाल पड़ गये। वे अपने ऊपर ग्‍लानि से भरे हुए थे। सोच रहे थे कि मैंने ही सेवकराम को दौलत का प्रलोभन देकर इस शादी के लिए तैयार किया था। लेकिन मुझको क्‍या मालूम था, वे समाज सुधारक के रूप में लालची कुत्त्ो हैं। लेकिन अब बात समाज में फैल चुकी है। यदि यह शादी नहीं हुई तो मेरी पूरी प्रतिष्‍ठा धूल में मिल जायेगी। अब तो मैं बुरी तरह फंस चुका हूँ। साँप छछूंदर वाली गति हो गई है मेरी।
सेठजी के एकान्‍त नीरवता मय वातावरण को उनकी बेटी क्षमा ने आकर भंग कर दिया। अप्रत्‍याशित क्षमा के आगमन से सेठजी चौंक उठे और उसे निहारने-लगे, व्‍यथा से बोझिल प्रश्‍न भरी दृष्‍टि से।
‘‘पापा-मैंने आपकी और सेवकराम जी की सारी बातें सुनलीं हैं। मुझे आज ही ज्ञात हुआ कि मेरा वैधव्‍य करोड़ों में बिक रहा है। इसका आभास तो मुझे पहले से ही था, परन्‍तु आज प्रत्‍यक्ष में ज्ञात हो गया और सारे रहस्‍य से पर्दा खुल गया।'' -क्षमा ने कहा।
‘‘पापा-विधवा विवाह का आदर्श उपस्‍थित करना है तो दौलत से नहीं नैतिकता के सिद्धान्‍तों से करिए।
पिता ने कहा - ‘बेटी -तुझे इन पचड़ों में नहीं पड़ना चाहिए। हम स्‍वयं तेरे हित की चिन्‍ता में लगे हैं।' -एक लम्‍बी साँस खींची सेठजी ने।
‘परन्‍तु पिताजी मैं यह शादी नहीं करूँगी। यह निर्णय मैं दृढ़तापूर्वक ले रही हूँ। -बेटी ने कहा।
‘‘मगर यह विवाह नहीं हुआ तो मेरी इज्‍जत मिटटी में मिल जायेगी, बेटी! मेरे लिए चन्‍द चांदी के टुकड़े तेरी जिन्‍दगी से ज्‍यादा कीमती नहीं हैं।'' -पिता ने कहा।
‘‘मगर यह बात सिद्धान्‍ततः गलत है। मैं हरगिज इसे नहीं मानूँगी। पापा-मुझे इसके लिए क्षमा करें। इन लालची कुत्तों की भूख कभी शान्‍त नहीं होगी। आगे भी मुझे और आपको इनसे स्‍थायी शान्‍ती नहीं मिलेगी।''
‘पापा - मैंने अपना वर स्‍वयं चुन लिया है। वह धनवान नहीं है परन्‍तु वैल एजूकेटेड इन्‍सान है। मास्‍टर लखमी चन्‍द जी का लड़का प्रशान्‍त। वह अब एक पोस्‍ट ग्रेजुएट कॉलेज में प्रौफेसर भी है। हम दोनों बचपन से ही एक दूसरे को अच्‍छी तरह जानते हैं। वह मुझसे शादी करने को तैयार है। वे लोग दहेज में एक पैसा भी नहीं लेंगे।'
‘मगर मेरी इज्‍जत'' सेठ जी ने कराहते हुए कहा।
‘‘पापा - इज्‍जत की चमक रिश्‍वत देकर अधिक दिन नहीं रखी जा सकती। पापा- प्‍लीज, आज मैं बालिग हूँ। अपना हित-अनहित अच्‍छी प्रकार समझती हूँ। मैं अपने कालेपन और वैधव्‍य का सौदा रूपये देकर कदापि नहीं करने दूँगी।''
और क्षमा ने तैश में आकर फोन उठा लिया। सेवकराम जी ने जो कमरे में करोड़पति बनने के ख्‍वाब देख रहे थे, फोन की घन्‍टी बजते ही रिसीवर उठा लिया। बड़ी उत्‍सुकता से बोले- ‘‘कौन सेठ जी बोल रहे हैं क्‍या? हाँ, कहिये क्‍या निर्णय लिया। मन में तुरन्‍त सोचा कि कीमती लाल ने आखिर उनके सामने घुटने टेक ही दिए क्‍योंकि उनके पास और चारा ही क्‍या है?'' परन्‍तु फोन पर एक स्‍त्री का स्‍वर सुनकर चौंके ‘‘मैं सेठ कीमती लाल नहीं हूँ- मंत्री जी। मैं उनकी विधवा बेटी क्षमा बोल रही हूँ। मंत्री जी- यह विवाह अब नहीं होगा। आप सिद्धान्‍त हीन निहायत गिरे हुए इन्‍सान हो। समाजसुधारक की आड़ में छिपे भेड़िया हो। हाँ मैं अन्‍यत्र शादी कर रही हूँ।'' -यह कहते हुए क्षमा ने फोन रख दिया।
मंत्री जी जोर से चीखे- ‘हलो, हलो, क्‍या कहा, मैं सिद्धान्‍तहीन हूँ। निहायत गिरा हुआ इन्‍सान, समाज सुधारक नहीं भेड़िया हूँ?' परन्‍तु फोन तो कट चुका था और मंत्री जी हाथ में रिसीवर लिए वहीं लुढ़क गये। शायद उन्‍हें फिर से दिल का दौरा पड़ गया था।
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''' जगदम्‍बा भवन, 104 चन्‍द्रलोक कॉलौनी, कृष्‍णा नगर, मथुरा-281004

 

(4) बरखा की विदाई

डॉ. कमल कपूर
और अंततः बरखा विदा हो गई। पर वह इस तरह विदा होगी न कभी सोचा था वसुधा ने और न कभी चाहा था। ‘विदा', विदाई और ‘विछोह कितने अजीब शब्‍द हैं न ये......अलगाव के दर्द से लिपटे हुए, फिर भी बेटी की विदाई एक ऐसा स्‍वप्‍न है, जिसे हर माँ, चाहे वह अमीर हो, चाहे गरीब, बेटी के जन्‍म के साथ ही पलकों में सजा लेती है और बेटी के साथ-साथ उस सपने को भी पालती जाती है, बेटी का जन्‍म यानी बरखा का जन्‍म? आँसुओं की एक सघन बदली आकर वसुधा की आँखों को भिगो गई और अपने संग उड़ाकर ले चली अतीत की ओर। दो बेटों के बाद जब फिर से वसुधा की कोख हरियाली तो उसने बड़ी हसरत के साथ, एक तमन्‍ना, भी बो दी उस नवांकुर की बगल में........बेटी के जन्‍म की तमन्‍ना। तीन पीढ़ियों से यह घर तरस रहा था कन्‍या-रत्‍न के दरस-परस को।
वसुधा को याद आ रहे थे वो दिन........... पल-छिन। कैसी भयंकर गर्मी पड़ी थी उस साल और सूखे की सी स्‍थिति आ गई थी! शहर बेहाल था और धरती तप रही थी सूर्यदेव के ताप से कि उस संताप को दूर करने उस शाम उमड़-घुमड़ कर खूब बरखा बरसी......इतनी कि खेत-खलिहान ही नहीं जन-जन के मन-प्राण भी खुशी से लहलहा उठे। यह वही शाम थी जब वसुधा के चिर संचित मीठे ख्‍वाब ने आकार लिया था। बेटी के रूप में उस नन्‍हीं जान ने धरती पर पहली साँस ली थी और घर भर ही नहीं पूरा मोहल्‍ला उमड़ पड़ा था, उसके आगमन से। ‘‘कितनी ठंडक ले आई है हमारी बच्‍ची, नूर की बूंद है यह जिसने सबको राहत बख्‍शी है। इसका नाम ‘बरखा' ही रखेंगे हम, वसुधा के ससुर ने उसी क्षण बच्‍ची का नामकरण कर दिया था।
घर बरखा की कोमल किलकारियों से गूंज उठा, दादू के तो प्राण बसते थे उसमें। भाइयों को खेलने के लिए मानों जीती-जागती गुड़िया मिल गई थी और अपनी माँ की आँखों का जगमगाता सितारा तथा पापा की जान थी वह। बेहतरीन ढंग से लालन-पालन हो रहा था उसका। गुलाबी ताजे गुलाब की पंखुरियों और केसर-कणों को कच्‍चे दूध में मिलाकर जो रंग तैयार होता है वही रंग और परियों का सा रुप लेकर आई थी बरखा ‘उस जहाँ' से ‘इस जहाँ' में जो दिनों दिन निखरता ही जा रहा था। सिर्फ रंग-रुप ही खूबसूरत नहीं था, स्‍वभाव भी शहद सा मीठा था उसका और आचरण सहज-सरल और विनम्र। पढ़ने में भी जहीन बच्‍ची थी वह। जिन्‍दगी सपाट-समतल और सहज राहों पर कदम धरते हुए निरंतर आगे बढ़ रही थी कि अचानक एक ऐसा भयानक मोड़ आया, जिसने उस स्‍वर्ग से घर की तमाम जिन्‍दगियों को उलट-पलट कर रख दिया। कहा जाता है कि आसमान के सितारे धरती पर रहने वालों के भाग्‍य तय करते हैं। उन सितारों ने अचानक ऐसी करवट बदली कि इस घर के सितारे गर्दिश में आ गए। ताजे-ताजे कैशोर्य में कदम रखा था तब बरखा ने सिर्फ तेरह बरस की थी वह, बड़ा बेटा असीम लगभग अठारह बरस का था और छोटा अचिंत पंद्रह का, जब एक माह के अंतराल में दो दुर्घनाएँ घटीं, बाबूजी यानी बरखा के दादू एक सड़क-एक्‍सीडेंट में मारे गए और पति अभय लकवाग्रस्‍त हो गये, इस लकवे का असर सिर्फ अभय के अंगों पर ही नहीं पड़ा, पूरा घर इसका शिकार हो गया मानों। काफी दिनों तक तो ‘मेडिकल लीव' पर चलते रहे अभय, वेतन भी मिलता रहा, फिर दिन अधिक गुजरे तो वेतन आधा हो गया और जब उनके ठीक होने के तनिक भी आसार नजर नहीं आये तो पहले वेतन बंद हुआ और फिर नौकरी गई। एक तो आमदनी का जरिया बंद हो गया दूसरे उनके इलाज का तगड़ा खर्च भी, घर-खर्च के साथ तन कर खड़ा हो गया, कुछ महीने तो जैसे-तैसे कटे, पहले जमां-पूंजी खर्च हुई, फिर अभय की कंपनी से मिला एकमुश्‍त पैसा, फिर बारी आई गहनों के बिकने की लेकिन माँ ने अचानक आकर वे गहने बचा लिए, अपनी पाई-पाई करके जोड़ी धन-राशि उसके हवाले कर माँ ने समझाया, ‘‘यह समस्‍याओं का हल नहीं है, संघर्ष बड़ा है, रास्‍ता लंबा है और तय भी तुम्‍हें ही करना है इसलिए आय का कोई जरिया ढूंढो, इस पैसे के खत्‍म होने से पहले ही एक पुख्‍ता जमीन खोज लो बेटी, अपने लिए, जिस पर मजबूती से खड़ी हो सको, ‘‘और माँ के सुझाव पर सबसे पहले अपनी गृहस्‍थी को दो कमरों में समेट कर वसुधा ने तीन कमरे किराये पर उठा दिए, अचिन्‍त की जिम्‍मेदारी माँ ने उठाने का वादा किया। असीम बी.काम. प्रथम वर्ष में था। उसने कॉलेज छोड़कर पत्राचार से पढ़ाई शुरु कर दी। बरखा को मंहगे कॉन्‍वेंट से निकाल कर सरकारी स्‍कूल में डाल दिया गया। उस दिन वसुधा की आँखें भी रोई थीं और मन भी। यह उसका पहला ख्‍वाब था जो माटी में मिला था, ‘‘तुम जी मत छोटा करो वसु बेटा, इसके नसीब में ‘कुछ' बनना लिखा होगा तो इस स्‍कूल में पढ़ कर भी बन जाएगी। सिर्फ महंगे स्‍कूलों में पढ़ने वाले बच्‍चे ही ऊँचाई पर पहुँचते हैं; ऐसा किस किताब में लिखा है?'' माँ ने धैर्य बंधाया और अचिन्‍त को लेकर चल दीं। वसुधा का मन रोया था उस दिन पर आँखें नहीं क्‍योंकि वह जानती थी कि उसके आँसू अचिन्‍त के भविष्‍य-पथ के रोड़े बन जायेंगे।
जब जम कर जीवन-संग्राम शुरु हुआ। ज्‍यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं थी वसुधा, हाँ व्‍याह से पहले सिलाई-कढ़ाई का डिप्‍लोमा-कोर्स किया था जो अब आड़े वक्‍त का संबल बना, झूठी शान को ताक पर रख कर उसने, मशीन संभाल ली, खूब काम आने लगा इतना कि मुश्‍किल से संभाल-निपटा पाती वह, असीम ने पढ़ाई के साथ-साथ दो दुकानों में हिसाब-किताब का काम शुरु कर दिया। इस तरह अपना खर्चा खुद उठा लिया, कुल मिलाकर इतनी आय तो हो ही जाती थी कि रोटी-कपड़े के ठीक-ठाक जुगाड़ के साथ-साथ अभय के इलाज का खर्च भी निकल ही जाता था लेकिन वसुधा इतनी मेहनत करके भी सुकून नहीं पाती थी। वजह थी अभय का हर पल चिड़चिड़ाना, वह भी न समझ आने वाले चुभते स्‍वर में। कभी-कभी तो वह ऊँचे स्‍वर में रोने लगते और सिर्फ बरखा के संभालने से ही संभलते। वह उन्‍हें समझाती, ‘‘पापा, सब कुछ ठीक हो रहा है न? आपने बहुत किया है हमारे लिए पापा और आगे भी करेंगे, देखियेगा, बहुत जल्‍दी ठीक हो जाएंगे आप, हम सब हैं न आपके साथ।''
‘‘बरखा ठीक कह रही है जी, आपको यूँ हिम्‍मत नहीं हारनी है, अरे बरखा जैसी बेटी दी है आपको जिन्‍दगी ने तोहफे में, फिर भी आप रोते हैं?'' वसुधा कहती तो टूटे-फूटे शब्‍दों में कहते अभय, ‘‘इसके लिए ही तो रोता हूँ, कुछ नहीं कर सका इसके लिए मैं, मेरी बच्‍ची।''
वसुधा अच्‍छी तरह समझती थी पति की बेबसी को कि उनके स्‍वाभिमान को गवारा नहीं हो रहा यूं बिस्‍तर पर पड़े रहकर दूसरों से सेवा करवाना लेकिन वक्‍त और हालात के आगे वह भी तो उतनी ही मजबूर थी जितने अभय थे। वह कहती, ‘‘इस तरह तो आप हमारे संघर्ष को भी मुश्‍किल बना देंगे जी। देखिये जैसे अच्‍छा वक्‍त नहीं रहा, बुरा वक्‍त भी नहीं रहेगा। इसे बदलना ही होगा पर प्‍लीज यूं निराश होकर, रोकर आप हमारी हिम्‍मत न तोडें़ जी।'' फिर अभय कभी चीखे-चिल्‍लाये नहीं लेकिन उन्‍हें खामोशी से आँसू बहाते कई बार देखा था वसुधा ने लेकिन यह सोचकर वह उन आँसुओं को देखकर भी अनदेखा कर देती कि अच्‍छा है अभय के मन का मलाल इस खारे पानी के साथ बह जाये और जी हल्‍का हो जाये उनका।
समय की धारा अपने पूर्व निर्धारित विधान के साथ बहती चली गयी। असीम एम.बी.ए. कर रहा था, साथ ही एक छोटी-मोटी सी नौकरी भी। बरखा ने ‘‘टैंन्‍थ'' में टॉप किया तो अगली पढ़ाई के लिए उसे स्‍कॉलरशिप मिल गयी। कुछ बच्‍चों के टयूशन भी ले लिये उसने। अभय पूरी तरह से ठीक तो नहीं हो पाये लेकिन व्‍हील चेयर पर बैठने लायक तो हो ही गये और लकवे से लड़खड़ाई जुबान भी काफी हद तक ठीक हो गयी। घर के हालात भी अपेक्षाकृत ठीक-ठाक हो गये थे इसलिये ही बर्खा ने कहा, ‘‘माँ अचिन्‍त भैया को वापिस बुला लें। मेरा जी नहीं लगता उनके बिना। साल में दो-एक बार ही तो मिल पाती हूँ उनसे। माँ, जैसा भी है, जितना भी है हम मिल-बांटकर खाएंगे और रहेंगे।'' माँ, के कहने पर वसुधा ने बेटे को नानी के घर भेजा था, अब बेटी के अनुरोध पर वापिस बुला लिया वह आ तो गया लेकिन उसका मन नहीं लगा यहाँ, वह फिर नानी के पास लौट गया। बरखा बहुत उदास रहने लगी थी इस बात से।
समय और आगे बढ़ा। असीम की अच्‍छी-खासी नौकरी लग गई एम.बी. ए. के बाद और बरखा ने भी बारहवीं पास कर स्‍कूल को अलविदा कह दिया। घर में सबका मन था कि वह अच्‍छे से कॉलेज में जाये और वह गयी भी लेकिन उसे वहाँ का माहौल रास नहीं आया। बाकी लड़कियों की तरह अच्‍छे और आज के फैशन के कपड़े-जूते और श्रृंगार के साधन नहीं जुटा पाती थी, इसलिये कुंठाओं तथा हीन भावनाओं के पंजे उसे बुरी तरह जकडते, इससे पहले ही उसने कॉलेज छोड़ दिया और पत्राचार से बी.कॉम. करने का फैसला किया। बचे समय का सदुपयोग वह हर तरह से घर की सहायता के लिये करना चाहती थी। वसुधा की एक ग्राहक-मित्र ने उसे किसी बिजनेस मैन की जुड़वाँ बेटियों मिनी-विनी की टयूशन दिला दी। सप्‍ताह में पाँच दिन दो घण्‍टे नित्‍य पढ़ाने के दो हजार रुपये मिल रहे थे उसे, बस उनकी माँग और शर्त की तरह बरखा को उनके घर जाकर पढ़ाना होता था। खासी दूर पर था उनका घर और बरखा शॉर्ट-कट से पैदल ही जाती थी। यह देखकर मिनी-विनी की मम्‍मी ने उनके अच्‍छे मार्क लाने पर उसे एक साइकिल भेंट में दे दी; इससे बरखा का वक्‍त भी बचने लगा और उसे थकान भी कम होने लगी। वसुधा भी बेटी की ओर से निश्‍चिंत हो गयी लेकिन उसे एक नई चिंता ने घेर लिया था कि बरखा सयानी हो रही है और उसके पास ब्‍याह के लिये कुछ भी नहीं है, दो चार गहनों के सिवा। कुल मिलाकर आय तो अच्‍छी हो रही थी पर व्‍यय भी कुछ कम न था। एक-एक पैसा जोड़कर बरखा के ब्‍याह के लिए एक मोटी रकम जमा कर चैन की साँस भी नहीं ले पाती थी, कोई दुःख, बीमारी या ब्‍याह/उत्‍सव आकर उसकी सारी जमां-पूंजी लील लेते थे। कैसे जुटेगा दहेज बरखा के लिए यह फिक्र वसुधा को दिन में चैन नहीं लेने देती थी और रातों को ‘‘जगराते बना देती थी। किसी भी स्‍थिति में वह बरखा के टयूशन वाले पैसे घर में खर्च नहीं करती। सिर्फ ये रकम तो काफी नहीं थी न ब्‍याह के लिये इसीलिये वसुधा ने जबरदस्‍त कतर-ब्‍योंत शुरु कर दी। अखबार का आना बन्‍द हुआ, दूध कम कर दिया। एक वक्‍त साग-सब्‍जी बनती और दोनों वक्‍त खायी जाती। वसुधा के पहनने-ओढ़ने, घूमने-फिरने के शौक तो कब के संघर्षों की भेंट चढ़ चुके थे अब खुद के खाने-पीने में भी कटौतियां शुरु कर दीं थीं उसने। बुनियादी जरुरतों के अलावा और किसी भी जरुरत को उस घर में घुसने की इजाजत नहीं थी। धन-सम्‍पन्‍नता नहीं तो क्‍या? ऐसी खास विपन्‍नता भी नहीं रही थी घर में और बरखा थी कि लाखों में एक सर्व गुण सम्‍पन्‍न लड़की। अभी बी.काम. अन्‍तिम वर्ष में ही थी कि उसके रुप गुणों से प्रभावित होकर रिश्‍ते खुद चलकर घर आने लगे थे। तीन-चार रिश्‍ते तो ऐसे आये थे जो बिन दहेज के ही बरखा को ब्‍याह कर ले जाना चाहते थे पर वे सब थे अन्‍तरजातीय, अपनी बिरादरी में तो ऐसा साहस किसी ने ना दिखाया। एक सम्‍बन्‍ध तो इसी गली की सुनन्‍दा जी लेकर आयीं थीं, ‘‘मेरा बेटा कितना होनहार है आपसे छुपा नहीं है बसुधा बहन और उसकी जीवन साथी बनने लायक लड़की मेरी नजरों में सिर्फ आपकी बरखा ही है और मेरा सुहास बेहद पसंद भी करता है उसको। आप ‘‘हाँ'' भर कह दें तो सवा रुपये और नारियल में ब्‍याह कर ले जाऊँगी लड़की को। कोई कमी नहीं है हमारे घर में, बस बरखा जैसी लक्ष्‍मी बहू चाहिए।''
इसे अपना सम्‍मान नहीं अपमान समझा था वसुधा ने। वह हालात की मारी हुई जरुर है लेकिन इतनी गयी-गुजरी भी नहीं कि दहेज ना देने के लोभ में गैर जाती में लड़की ब्‍याह दे और वह भी चार घर छोड़कर गली में ही। लोग क्‍या कहेंगे? समाज क्‍या कहेगा? असीम को तो कोई बुराई नजर नहीं आयी थी इस रिश्‍ते में और ऐतराज बरखा को भी नहीं था। झिझकते हुए दबे स्‍वर में कहा था उसने, ‘‘माँ मेरी बेहयाई न समझें और न मुझे चाव-रुचि है ब्‍याह में लेकिन आप ही मेरे ब्‍याह के लिए रात-दिन फिक्रमन्‍द रहती हैं और कहीं न कहीं तो मेरा व्‍याह करेंगी ही तो यहाँ क्‍यों नहीं?''
‘‘और क्‍या मांग कर रिश्‍ता ले जायेंगे तो हमारी बरखा को सुखी रखेंगे और सुहास को भी मैं अच्‍छी तरह जानता हूँ। वह हर तरह से हमारी बरखा के लायक है और फिर हम अपनी हैसियत से बढ़कर ब्‍याह करेंगे माँ'' असीम ने भी बहन का पक्ष लिया था लेकिन बिफर उठी थी वसुधा, ‘‘नहीं, हरगिज नहीं, हम ब्राह्मण हैं और वे कायस्‍थ। इतने बुरे दिन भी नहीं रहे हमारे अब कि जो मांगे बेटी उसी के हवाले कर दें।'' अभय तक तो यह बात पहुँचायी नहीं गयी थी; यह क्‍या कोई मसला उन तक नहीं पहुँचाया जाता था।
बरखा तो ब्‍याह को जिन्‍दगी के लिये जरुरी समझती ही नहीं थी। उसने कभी प्रत्‍यक्ष खुद तो कभी नानी से कहलवाया था। माँ को कि वह ब्‍याह करना ही नहीं चाहती। जो रकम उसके ब्‍याह के लिये जोड़ी जा रही है वह घर वालों का हक है इसलिये उनके लिये ही इस्‍तेमाल की जाये लेकिन वसुधा के लिये तो तब मानों एक ही काम बचा था बरखा के ब्‍याह की चिंता और जतन।
बरखा के इम्‍तिहान कोई ज्‍यादा दूर नहीं थे इसलिये अपनी पढ़ाई पर बहुत जोर दे रही थी वह और जोर मिनी-विनी की पढ़ाई का भी था। सुध-बुध भूलकर खाना-पीना बिसारकर वह मेहनत कर रही थी जी जान से। इतनी मेहनत और तनाव उसे बुरी तरह थका देते थे लेकिन उसकी भरसक कोशिश रहती कि घर में कोई उसकी तकलीफ को ना जाने पर वसुधा माँ साफ महसूस करती कि बेटी पर बोझ जरुरत से ज्‍यादा है, पर कर कुछ न पाती। वसुधा को दिन-रात मशीन पर झुके देखकर बरखा का जी भी दुखता था इसलिये जिद करके उसने रात की रसोई का सारा जिम्‍मा उठा लिया था।
सप्‍ताह में एक या दो बार बरखा टयूशन से ही सीधे कॉलेज में रेग्‍यूलर पढ़ने वाली अपनी खास दोस्‍त मुक्‍ता के घर जाती और उससे नोटस लेकर लौट आती।
फरवरी मांह का अन्‍तिम सप्‍ताह था वह, जब सिर्फ सांझ-सवेरे ही हल्‍के ठण्‍डे होते हैं लेकिन उस दिन की शाम तो बादलों से घिरकर बेहद ठण्‍डी हो गयी थी। तूफान और तेज बारिश आने की सम्‍भावना साफ नजर आ रही थी। काली रात सी संवला उठी थी वह शाम। हल्‍की बूंदा-बांदी ही शुरु हुई थी कि मुक्‍ता के घर से निकल पड़ी बरखा। मुक्‍ता ने उसे बहुत रोका लेकिन उसे पूरी उम्‍मीद थी कि वह बारिश होने से पहले ही घर पहुँच जायेगी लेकिन अभी आधा रास्‍ता भी तय नहीं कर पायी थी कि बूंदा-बांदी ने पहले हल्‍की फिर तूफानी बारिश का रूप ले लिया; फिर भी वह रुकी नहीं और तेज-तेज पैडल मारती बढ़ती रही। हवा का रुख भी प्रतिकूल था, बार-बार साइकिल लड़खड़ा रही थी लेकिन बरखा ने हिम्‍मत नहीं हारी और भागती-कांपती घर पहुँच ही गयी। माँ ने मीठी फटकार लगायी ‘‘वहीं क्‍यों नहीं रुक गयी?'' लेकिन उसने कोई जबाब नहीं दिया और कपड़े बदलकर बिस्‍तर में घुस गयी। वसुधा ने गरम कम्‍बल उढ़ा दिये उसे और गर्म दूध ले आयी लेकिन दूध का प्‍याला थामने की हिम्‍मत भी नहीं बची थी उसमें। उसी रात तेज बुखार ने घेर लिया उसको पर उसने ‘उफ तक नहीं की, सारी रात सहती रही। सुबह वसुधा उसे जगाने गयी तो वह बेसुध पड़ी थी। असीम फौरन अॉटो-रिक्‍शा ले आया और बरखा को अस्‍पताल ले जाया गया। डॉक्‍टर ने चैक किया और गुस्‍से से कहा, ‘‘पीली पड़ी हुई है लड़की। खून तो जैसे है ही नहीं, कमाल की माँ हैं आप, कभी इसकी कमजोरी नजर नहीं आयी आपको? हडिडयों का ढांचा है यह या लड़की है? इतनी कमजोर है कि जरा सा भीगना भी नहीं सह पायी।''
डॉक्‍टर इलाज कर रहे थे और वह बेसुधी में निरंतर बड़बड़ा रही थी, ‘‘पापा को दूध दे दो माँ, दूधिए को बोल दो दूध ज्‍यादा दे जाया करे,'' ‘‘पापा का अखबार चालू करवा दो माँ,'' ‘‘अचिंत भैया कहाँ हो तुम?'' ‘‘मुझे ब्‍याह नहीं करना माँ बिल्‍कुल नहीं,'' ‘‘पापा आप अच्‍छे हो जायेंगे,'' शायद उसके मन का दबा हुआ लावा था जो बेसुधी की हालत में पिघल-पिघल के बाहर आ रहा था।
बुखार दिमाग पर चढ़ गया है, ‘‘मैनिनजाइटस'' का केस है ‘‘दुआ कीजिए, कि वह बच जाये उम्‍मीद तो कम है,'' डॉक्‍टर ने कहा तो वह और असीम कांप उठे। वे तो दुआ कर ही रहे थे, पूरा मोहल्‍ला भी उमड़ आया था वहाँ। हर जुबान पर दुआ थी, प्रार्थना थी और मन्‍नतें थीं लेकिन प्रभु ने इन्‍हें स्‍वीकार नहीं किया और उसी शाम दम तोड़ दिया बरखा ने। कैसे सहा बसुधा ने। उसकी भी सांसें क्‍यों ना थम गयीं यह सुनकर, ‘‘सॉरी मैडम, शी इज नो मोर''। पथरा गयी थी जैसे वसुधा। असीम दीवार से सिर मार रहा था। लोग रो रहे थे। यह सब क्‍या हो रहा है, चकरा सी रही थी वह। जुबान को लकवा मार गया था और आँखें शून्‍य में एकटक ताक रही थीं। पंडित जी ने पूजा और तर्पण के बाद कहा, ‘‘देव-लोक की कोई पथ भ्रष्‍ट देवी थी बिटिया जो भूले से आप लोगों के घर चली आई थी, अब लौट गई है अपने धाम शापमुक्‍त होकर, उसके लिए मत रोएँ आप लोग, वह सुखी हो गई है।''
‘‘हाँ सुखी ही तो हो गई है वह। क्‍या पाया उसने इस घर में आकर? हर पल जी-जान से साथ दिया हमारा, कभी कोई माँग नहीं की, कभी कोई इच्‍छा नहीं जतायी, कोई शिकायत भी तो नहीं की अभागी ने कभी,'' नानी ने ठंडी साँस लेकर कहा।
‘‘कन्‍या रूप में ही गई है बिटिया, इसका विधिवत सिंगार करिये जैसे दुल्‍हन का किया जाता है.......सांचे घर जाना है इसे,'' पंडित ने कहा और सोलह सिंगार कर वसुधा ने बिदा कर दिया उसे, उसकी इस तरह की बिदाई का सपना तो नहीं संजोया था वसुधा ने, ‘‘बरखा बिदा हो कई........चली गई,'' ‘‘मजे में तो है?'' यही शब्‍द बार-बार दहेराते हैं अभय न रोते हैं, न चिल्‍लाते हैं और न चिड़चिड़ाते हैं, ‘‘दोषी तो मैं ही हूँ, जात-पात के मकड़-जाल में न उलझती तो बरखा इसी गली में चौथे मकान में ब्‍याह कर चली जाती और सारी जिंदगी मेरी आँखों के सामने रहती। लताड़ती है वसुधा खुद को अपनी फूल सी बच्‍ची के नाजुक से अस्‍थि-फूल इन्‍हीं क्रूर हाथों में गंगा जी में विसर्जित किए उसने, क्‍यों और कैसे भगवान ने उसे इतना कठोर बना दिया?
तेरह दिन हो गए.........अंतिम रस्‍म भी अदा हो गई, मेहमान बिदा हो गए, घर में मशानी-सन्‍नाटा पसरा था जिसे असीम के उच्‍च रोदन ने भंग कर दिया, ‘‘ओ बरखा री, मैं कैसे जिया तेरे बिनी बहना? ऐसे जाना था तो आई क्‍यों थी हमारे घर?''
‘‘कितनी अजीब बात है न माँ, कई दिनों के सूखे के बाद कितनी खुल कर बारिश बरसी थी उस दिन, जिस दिन बरखा का जन्‍म हुआ था और उसके मरण का कारण भी बारिश ही बनी, वह कितना चाहती थी कि मैं यहीं रहूँ, उसके साथ। अगर मैं जानता होता न माँ कि उसकी जिन्‍दगी इतनी छोटी है, तो मैं कभी दूर न जाता उससे'' कह कर रो पड़ा अचिन्‍त तो सभी का रोना छूट गया और घर रुदन के स्‍वरों से भर गया।
‘‘चुप, एकदम चुप, रोकर अपशकुन मत करो तुम लोग, तुम रोओगे तो ससुराल में वह सुख से रह पाएगी क्‍या? वसुधा, उठो और सांझ की दिया-बाती करके बरखा का सुख मांगों,'' बर्फ से भी ज्‍यादा ठंडे स्‍वर में कहा अभय ने और वसुधा ने देखा कि आज उनकी आँखों की कोरें भी भीगी हुई हैं तो वह भी रो पड़ी, बरखा की बिदाई के बाद आज पहली बार इतना खुलकर रोई थी वह।
''' 2144/9, फरीदाबाद-121006 (हरियाणा)

5 - साँसों का तार

डॉ. उषा यादव
मौत दबे पाँव आगे बढ़ रही थी। कोई पदचाप नहीं, फिर भी आगमन के स्‍पष्‍ट संकेत। इतनी संगदिल क्‍यों होती है मौत? न समय-कुसमय देखती है, न पात्र-कुपात्र। जब जी चाहा, मुँह उठाया और चल पड़ी। जिसे जी चाहा, अपने पंजों में दबाया और चील की तरह ले उड़ी।
इमरजेंसी वार्ड के बैड नं. पाँच पर पड़ी हुई वन्‍दना इस समय मौत की निगाहों का लक्ष्‍य थी। यों जिन्‍दगी और मौत में चूहे-बिल्‍ली का खेल चल रहा था, पर जिन्‍दगी किसी भी क्षण मौत के पंजों में दबोची जा सकती थी। डॉक्‍टरों ने पहले ही सिर हिलाकर जवाब दे दिया था और अब सिर्फ पुलिस और मजिस्‍ट्रेट की मौजूदगी में मृत्‍यु-पूर्व बयान लिया जाना शेष था। इंजेक्‍शन, आक्‍सीजन और रक्‍त अभी भी बड़ी तत्‍परता से दिये जा रहे थे, पर केवल इसलिये ताकि वन्‍दना को कुछ क्षणों के लिए होश आ सके। कम-से-कम वह बता तो सके कि उसकी यह हालत किसने की है?
बेहोश वन्‍दना के चेहरे पर पीड़ा की अनन्‍त लकीरें थीं। पिछले दो सालों से सिर्फ पीड़ा और यातना ही भोग रही थी वह। दर्द के सैलाब में डूबते-उतराते यह भी भूल गयी थी कि कुछ दिन पहले चंचल और उल्‍लास-भरे बचपन की गलबहियाँ उसे घेरे हुए थीं। फिर न जाने किस अदृश्‍य जादूगर ने अपने इन्‍द्रजाल से उसके भोले बचपन को मादक यौवन में बदल दिया। इधर ब्‍याह तय हुआ, उधर ढोलक की थापों के बीच स्‍त्रियाँ सुहाग के गीत गा उठीं-‘काहे कूं ब्‍याही विदेस रे सुन बाबुल मोरे।'
वन्‍दना नहीं, बाबुल के आँगन की वह चिड़िया चुग-बिनकर पराये घर उड़ गयी थी। नया परिवेश उसने इतनी सहजता से आत्‍मसात कर लिया, जैसे हमेशा से उसी माहौल में रहती आयी हो। लड़की थी न, लता की कोमल टहनी की तरह लचीली न होती तो क्‍या पराये घर-द्वार में इतनी सुगमता से घुल-मिल जाना आसान बात थी?
पर आसान नहीं था ससुराल वालों को खुश रख पाना। खास तौर से तब, जब धन की हवस भस्‍मक रोग बन चुकी हो। देखते ही देखते नयी बहू को घर में नौकरानी का दर्जा दे दिया गया। वह सारा दिन चाकरी करती और बदले में पाती लात-घूँसों का उपहार। काम से थक-टूटकर जब खाना खाने पहुँचती तो घण्‍टों से खुले पड़े हुए दाल-चावल के पतीलों पर भिनकती मक्‍खियों को देख मन उबकाई से भर जाता। मुँह में डालना तो दूर रहा, ऐसा गलीज भोजन वह कुत्ते-बिल्‍ली के सामने भी नहीं फेंक सकती थी। भूखे पेट में एक लोटा पानी उँडेल, अँतड़ियों में दर्द की चुभन लिये फटी दरी पर जा लेटती थी।
रक्षाबन्‍धन पर पीहर गयी तो माँ के सामने बिलख पड़ी थी-मुझे चाहे टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दो, पर उस नरक में अब न ढकेलो। मैं वहाँ ज्‍यादा दिन जिन्‍दा नहीं रह सकूँगी।'
माँ-पापा में सलाह-मशविरा हुआ था और फिर उसके आगे पढ़ने की योजना बन गयी थी। पापा ने बड़ी गम्‍भीरता से कहा था-‘हम समझेंगे कि अपनी वन्‍दना को अभी ब्‍याहा ही नहीं है। उसके साथ की लड़कियाँ अभी स्‍कर्ट-ब्‍लाउज और दो चोटियों में घूम रही हैं। उन्‍नीस साल की उम्र होती ही कितनी है? यह बी.ए. पास है, ट्रेनिंग करके कहीं नौकरी करेगी। अपने पाँवों पर खड़ी हो जायेगी तो आत्‍मविश्‍वास से सिर उठाकर जी सकेगी।
इस आश्‍वासन के बावजूद उसका ही मन कमजोर सिद्ध हुआ था। एक दिन कालेज के लिए निकली तो वापसी में मायके के बजाय ससुराल जा पहुँची थी। राह में स्‍कूटर रोककर खड़े हो गये थे नवीन-‘अपनों से भी कहीं इस तरह रुठा जाता है वन्‍दना? तुम्‍हारे बिना वह घर क्‍या मेरे लिए घर रह गया है? छत और दीवारें तो हैं, पर मन्‍दिर में प्रतिष्‍ठित प्रतिमा नदारद है। अपनी आराध्‍या को साथ लिये बिना आज वापस नहीं लौटूँगा।'
वह ऐसा पसीजी थी कि सारे संकल्‍प और कठोरता भूलकर उनके साथ चली गयी थी। बाद में माँ का शिकायत-भरा पत्र आया था-‘हमें तुझसे ऐसी कायरता की उम्‍मीद नहीं थी बेटी। हम अपनी शक्‍ति-भर संघर्ष करते, पर तू ही हमारा साथ छोड़ गयी।'
उसने ससंकोच जवाब दिया था-‘इस घर में कुछ लोग बुरे हो सकते हैं माँ, पर सब नहीं। एक व्‍यक्‍ति यहाँ ऐसा भी है, जिसके प्‍यार-भरे आमंत्रण को ठुकराने की सामर्थ्‍य मुझमें नहीं है। ससुराल आकर अगर मैंने कोई गलती की हो, तो उसके लिए तुमसे, खास तौर से पापा से, माफी माँगती हूँ।'
कितने विश्‍वास से उस एक की पैरवी की थी उसने! पर यह विश्‍वास देखते ही देखते बालू की भित्ती साबित हुआ था। जिस दिन नवीन की असलियत खुली, वह एकदम विक्षिप्‍त-सी हो उठी थी।
नितान्‍त सहजता से बातों-बातों में बोले थे वे- ‘सुनो वन्‍दना, चिटठी लिखकर इस इतवार को विनय को बुला लो।'
‘क्‍यों?'-वह चौंक पड़ी थी। ‘अरे वाह, साला है हमारा। क्‍या उससे बातचीत भी नहीं कर सकते हैं? साली होती तो तुम्‍हारा चौंकना एक बार वाजिब था, पर तुम तो विनय के नाम से ही घबरा उठी।'-नवीन हँस पड़े थे।
मुस्‍कराकर उसने पत्र लिख दिया था। पर विनय के आने पर जब नवीन ने दस हजार रुपयों की माँग रखी थी और तीन दिन में न पहुँचाने पर नतीजा देख ने की धमकी दी थी, तो वह एक बारगी काँप उठी थी। यह सच था या मजाक, समझ नहीं पायी थी वह। यदि सच था तो सर्वनाश निश्‍चित था। यदि मजाक था तो बड़ा ओछा और घिनौना था। पन्‍द्रह साल का किशोरवय का विनय भी एकदम अवाक, हत्‍प्रभ और रुआँसा हो उठा था। मुँह बाँए नवीन की चेतावनी सुन रहा था-‘किसी बाहर वाले को कानों-कान खबर नहीं होनी चाहिए। ध्‍यान रहे, तुम्‍हारी बहन इसी घर में मौजूद है।'
रुपये दूसरे दिन पहुँच गये थे, पर मुँह में एक बार खून लग जाने पर शेर को आदमखोर बनते देर नहीं लगी। आज फ्रिज, कल टेलीविजन, परसों वी.सी. आर. के लिए मुँह फाड़ते नवीन तनिक नहीं झिझकते। भाई को आने के लिए पत्र लिखते वक्‍त वन्‍दना अवश्‍य लज्‍जा से धरती में गड़ जाती, क्‍योंकि इस निमंत्रण का मतलब वह ही नहीं, माँ-पापा भी अच्‍छी तरह जान गये थे। चतुर नवीन पत्र में अपनी माँग का कोई जिक्र नहीं करवाते, पर आमने-सामने बैठकर विनय को सब कुछ समझा देते-बुलावा भेजने पर भी न आने का अंजाम, माँग पूरी करने में किसी किस्‍म की आनाकानी का अंजाम, बात के इधर से उधर होने का अंजाम तथा और बहुत कुछ। वन्‍दना सब देख-सुनकर छटपटाती रह जाती।
ऐसे में माँ बनने का आभास उसके तापित तन-मन के लिए एक शीतल अहसास की तरह आया, लगा दुख की घड़ियाँ शायद खत्‍म हो जायेंगी। हस्‍पताल के लेबर-रुम में जिस क्षण उसने बच्‍चे के रोने की आवाज सुनी, मर्मान्‍तक प्रसव-पीड़ा के बावजूद उसके अधरों पर स्‍मित-रेखा नाच उठी थी।
पापा और विनय शिशु-जन्‍म की सूचना पाकर काफी ताम-झाम के साथ जब उसकी ससुराल पहुँचे, तो उनसे मुलाकात हो जाना भी एक चमत्‍कार से कम न था।
पापा ने गम्‍भीर स्‍वर में पूछा था-‘कैसी हो बेटी?' हालाँकि कमरे में एकान्‍त था, वह मन की बात कह सकती थी, तब भी मुस्‍कराकर बोली थी-‘अच्‍छी हूँ पापा।'
‘खुश तो हो न?'
‘जी, बहुत खुश हूँ। लगता है, अब सब कुछ ठीक हो जायेगा।'
‘माँ से मिलने नहीं चलोगी? वह तुम्‍हें बहुत याद करती है। उससे मिले हुए तुम्‍हें डेढ़ वर्ष से ज्‍यादा समय हो चुका है।'
‘मन तो मेरा भी बहुत है पापा, पर.......!'-वह हल्‍की-सी उदास हो उठी थी, पर अगले ही पल चहककर बोली थी-‘माँ से कहियेगा कि वे बिल्‍कुल चिन्‍ता न करें। विनय के जीजाजी कल कह रहे थे कि जैसे ही मैं उठने-बैठने लायक होऊँगी, वह मुझे माँ से मिलाने ले चलेंगे।'
‘और कोई दिक्‍कत तो नहीं है न?'
‘न, अब दिक्‍कत क्‍या होगी! इस छुटके का मुँह देखकर सब लोग ऐसे खुश हैं कि मुझे हाथोंहाथ लिये रहते हैं। कभी बादाम का हलवा, कभी सोंठ का हरीरा कभी गोंद के लडडू व पंजीरी, मुझें खुशामद करके खिलाते रहते हैं। यकीन नहीं होता कि मेरी तकदीर कैसे रातोंरात जाग गयी।'
पापा के हृदय से जैसे एक बोझ उतर गया था। स्‍नेह से प्रसूता पुत्री का कन्‍धा थपथपाते वे उठ खड़े हुए थे।
और यह सिर्फ एक सप्‍ताह पहले की बात थी। हफ्‍ते भर में ऐसा क्‍या हुआ कि एक हँसती-खेलती जिन्‍दगी मौत के पास पहुँचा दी गयी। मौत भी खुद आयी होती तो सब्र किया जा सकता था। पर यह किसी कसाई ने मासूम गाय को तड़पा-तड़पाकर.........।
इमरजेंसी वार्ड के बरामदे में माँ-बाप हताशा की मूर्ति बने बैठे थे। विनय दोनों हाथ मलता हुआ उत्तेजना से रह रह कर काँप रहा था। तीनों के मस्‍तिष्‍क में केवल एक ही सवाल था-‘कल रात आखिर हुआ क्‍या था?'
शायद वे इसके जवाब का अनुमान लगा रहे थे, पर कानून और न्‍याय को अनुमान की नहीं, ठोस प्रमाण की आवश्‍यकता थी। अकाटय प्रमाण सिर्फ वन्‍दना का मृत्‍यु-पूर्व बयान दे सकता था। वही होश में आने पर बता सकती थी कि पिछली रात उस पर किसने ऐसा अमानवीय जुल्‍म ढाया था? जिसने अग्‍नि को साक्षी करके सुख-दुःख में आजीवन साथ निभाने का वचन दिया था, वही प्राणघाती सिद्ध हुआ है, सिर्फ इतना होश में आने पर वन्‍दना को बताना था। उसकी एक स्‍वीकारोक्‍ति गुनहगार को सजा दिला सकती थी। पर उसका हर पल निश्‍चेष्‍ट पड़ता शरीर अपनी चुकती हुई साँसों को शायद बटोर नहीं सकेगा, ऐसा आभास हो रहा था। डॉक्‍टर फिर भी प्रयास में लगे थे, क्‍योंकि उन्‍हें अन्‍तिम क्षण तक कोशिश करनी ही थी।
बाहर बैठे माँ और पापा अब भी पत्‍थर बने हुए थे। विनय आवेश से मुटिठयाँ भींच रहा था। वन्‍दना के दर्द से नीले पड़ते अधर जैसे उनके कानों में फुसफसा रहे थे-‘तुम्‍हें भी मृत्‍यु-पूर्व बयान की जरुरत है क्‍या? तुम लोग तो मेरी पीड़ा के एक-एक पल के साक्षी हो। मेरी देह पर लिखी व्‍यथा-कथा को खुद ही समझ लो न!'
यह कहानी रात के पिछले पहर में शुरु हुई थी, जब निश्‍चिन्‍त सोती वन्‍दना को नवीन ने झकझोर कर जगाया था।
‘उठो, मेरे साथ इसी वक्‍त स्‍कूटर पर मोतीगंज चलो।'
‘क्‍यों?' ‘मुझे पच्‍चीस हजार रुपयों की जरुरत है।' ‘पर इस वक्‍त पापा के पास रुपये कहाँ होंगे?' ‘रुपये नहीं तो सोना-चाँदी कुछ तो होगा। सुबह सात बजे एक आदमी लेने आयेगा। उससे पहले-पहले इन्‍तजाम हो जाना जरुरी है।'
पर अपनी जगह से हिली भी नहीं थी वन्‍दना। दुःख और क्षोभ से पागल जैसी हो उठी थी। उसे लगा कि जब इन लालचियों की हवस का यज्ञ अधूरा ही रहना है तो बार-बार उसमें आहूति डालने से क्‍या लाभ? डालनी ही होगी तो अपनी पूर्णाहुति डालकर इस किस्‍से को हमेशा के लिए खत्‍म कर देगी वह। उसकी दृढ़ता-भरी चुप्‍पी को उद्दण्‍डता समझ क्रोध से पागल हो उठे थे नवीन और तड़ातड़ पीटने लगे थे। तभी परदा हटाकर सास ने भीतर झाँका था-‘उसकी जान ही ले डालेगा क्‍या नवीन? बच्‍ची ही तो है अभी। प्‍यार से समझा-बुझा दे।'
सास की यह कृत्रिम सम्‍वेदना उसे पति की मार से भी ज्‍यादा खली थी। दृष्‍टि उठाकर उधर एक बार आग्‍नेय नेत्रों से देखा था उसने। बाहर से ससुर गला खँखारकर बोले थे-‘तुम तो समझदार हो बेटी। अपने पति की पेरशानी को समझो। रुपये हों तो रुपये, नहीं तो अपनी माँ से कुछ जेवर माँग लाओ। बाहर एक आदमी आकर तुम्‍हारे पति का गला दबाये, क्‍या तुम इसे सह सकोगी?'
‘मैं नही जाऊँगी।' वन्‍दना ने दृढ़ता से अपने अधर भींच लिए थे। ‘तो फिर ले.......।'-कहते हुए नवीन उस पर लात-घूँसों से पिल पड़ा था। ‘मैं चलूँगी।'-सौर की कच्‍ची देह जब प्रहार न झेल सकी तो वन्‍दना घिघियाई-‘मुझे जरा बच्‍चे को उठा लेने दो।'
‘ज्‍यादा चतुर बनने की जरुरत नहीं है। बच्‍चा यहीं रहेगा.......।' नवीन गरजे थे।
नींद से जागकर शिशु उसी क्षण से रो उठा था। वन्‍दना तड़पकर बोली थी-‘यह भूखा है।'
‘अम्‍मा इसे रुई की बत्ती से दूध पिला देगी। तुझे ज्‍यादा जबान चलाने की जरुरत नहीं है।'
वन्‍दना को अपने वक्ष में दर्द की लहर दौड़ती महसूस हुई उसका शिशु दूध पीने के लिए रो रहा है और वह असहाय माँ अपने बच्‍चे को छाती तक से नहीं लगा पा रही है, इससे बड़ी यन्‍त्रणा और क्‍या हो सकती थी उसके लिए? वह कातर कण्‍ठ से कह उठी-‘मुझे मेरा बच्‍चा दे दो। सिर्फ एक बार। मैं उसे दूध पिलाकर चली चलूँगी।' नवीन चोट खाये विषधर जैसे भयानक हो उठे थे, पर वन्‍दना दोनों हाथों से अपना वक्षस्‍थल दबाये, आँखों में करुणा बरसाती उन्‍हें देखे जा रही थी।
‘सुनती नहीं है क्‍या?'
‘मेरा बच्‍चा भूखा है। दूध से मेरा सारा ब्‍लाउज भीगा जा रहा है। क्‍या करुँ, बताओ।' -असहाय दृष्‍टि से उन्‍हें ताकते हुए बोली थी वह।
‘इधर मेरे पास आ। मैं बताऊँ तुझे......।'-कहते हुए क्रोध से उन्‍मत्त नवीन उसकी ओर बढ़े। बेरहमी से साड़ी का पल्‍ला खींचा, अगले झटके में ब्‍लाउज तार-तार कर दिया और दूध से उफनती छातियो को जेब से निकाले चाकू की पैनी धार की भेंट चढ़ा दिया।
वन्‍दना के वक्ष से रक्‍त की धाराएँ बह उठीं। वह अचेतप्रायः हालत में भूमि पर गिर पड़ी। सास ने भीतर आकर बेटे को लताड़ा-छिः, यह क्‍या किया तूने? इसे मार डाला?'
नवीन धरती पर बैठकर थके सूअर की तरह हाँफने लगा।
‘सुनो जी, इसे स्‍कूटर पर गठरी की तरह लादकर इसके बाप के दरवाजे पर पटक आओ। मेरी तो छाती धक-धक कर रही है। बाद में ठण्‍डे दिमाग से सोच लेंगे कि पुलिस से क्‍या कहना है। अभी तो यह लाश यहाँ से फौरन हटाओ।' लगभग बेहोश वन्‍दना को लाल ऊनी चादर में अच्‍छी तरह लपेटकर गैस के सिलेण्‍डर की तरह स्‍कूटर की दो सीटों के बीच रख दिया गया। आगे चालक की गद्दी पर ससुर बैठे, पीछे उसे थामकर पसीना-पसीना होती हुई सास बैठ गयी। स्‍त्रियों की भाँति पायदान पर दोनों पाँव रखकर नहीं, बल्‍कि पुरुषों की तरह दोनों तरफ पाँव लटकाकर उन्‍हें बैठना पड़ा। घुटनों तक खिसक आयी साड़ी की तरफ देखने की भी फुरसत नहीं थी उनको इस वक्‍त। नवीन कुछ क्षण पहले जो काण्‍ड कर चुका था, उसके बाद उसके मानसिक सन्‍तुलन पर विश्‍वास नहीं किया जा सकता था। नहीं तो शायद लहूलुहान वन्‍दना को थामकर बैठने की जिम्‍मेदारी उसे ही सौंपी जाती।
रात के सन्‍नाटे में, सुनसान सड़क पर दो मील की दूरी दस मिनट में तय हो गयी। समधी के बन्‍द दरवाजे के सामने गठरी पटककर सास-ससुर उसी क्षण स्‍कूटर से वापिस लौट गये। भोर से कुछ पहले घटी इस घटना के आँखों देखे गवाह सिर्फ आकाश के कुछ नक्षत्र मात्र थे।
हड़बड़ी से पटखने से गठरी खुल गयी थी और खुली हवा में साँस लेने से वन्‍दना की चेतना जैसे एक सपना-सा देखने लगी-‘उफ, यह प्रसव-पीड़ा कितनी देर से उसे तड़पा रही है। यह जानलेवा दर्द सारे शरीर को अपनी गिरफ्‍त में लेता जा रहा है। नर्स बार-बार आकर कभी ब्‍लडप्रेशर देखती है, कभी टेम्‍परेचर लेती है। कभी दिलासे के दो शब्‍द कहती है कभी गुस्‍से से झिड़कती है-‘अरे बाबा, तुम क्‍या अनोखा माँ बनने जा रहा है? चीख-चीखकर सारा हॉस्‍पीटल सिर पर उठा लिया। अब अगर मुँह से आवाज निकाला तो तुम्‍हें इसी वक्‍त डिसचार्ज कर देगा।'
‘फिक्र मत करो। जल्‍दी ही सारा दर्द-तकलीफ दूर हो जायगा। तुम एक चाँद के माफिक बच्‍चा का माँ बन जायेगा। इस वक्‍त हमें एक नया साड़ी देना पड़ेगा।' साड़ी तो वह दे देगी, पर दर्द के इस सैलाब में डूबने से कैसे बच सकेगी? यह तो. ......!
और अगले ही पल पूरी तरह अचेत हो गयी थी वन्‍दना। कुछ देर बाद पापा ने जब सैर के लिए जाते वक्‍त दरवाजा खोला तो एक लुढ़की हुई गठरी को देख घबरा से गये। आवाज देकर पत्‍नी को बुलाया उन्‍होंने और जब पति-पत्‍नी दोनों ने मिलकर गठरी को सीधा किया तो उनके मुँह से एक साथ चीख निकल गयी थी।
माँ ने रक्‍त-रंजित बेटी के हृदय में धड़कन का आभास पाकर रुदन भरे कण्‍ठ से कहा-‘इसे तुरन्‍त हॉस्‍पीटल ले चलिये। यह अब कैसे चलेगी? न जाने किस राक्षस ने इसकी यह हालत की है।'
और शायद इस अनुत्तरित प्रश्‍न का उत्तर देने के लिए ही वन्‍दना होश में आ गयी। सूचना पाते ही बदहवास माँ-पापा कमरे में जा पहुँचे। सिसकियाँ रोकने का असफल उपक्रम करते हुए बेटी के सिरहाने आ खड़े हुए।
वृद्ध डाक्‍टर ने करुणा-भरे स्‍वर में पूछा-‘तुम्‍हारी यह हालत किसने की है बेटी, जरा याद कर बताओ।'
कुछ कहने के लिए वन्‍दना के होंठ हिले, पर नीचे झुकने के बावजूद मजिस्‍टे्रट को एक शब्‍द भी न सुनायी दिया। उन्‍होंने हताशा से सिर हिलाया। ‘बोलो बेटी, कुछ तो बोलो। अपने मन की बात बेहिचक कह डालो।'-माँ ने उतावले कण्‍ठ से, हिचकियों के बींच कहा।
वन्‍दना की निस्‍तेज आँखें कुछ और खुलीं। निगाह डॉक्‍टरों-नर्सों से होती हुई, माँ-पापा के चेहरों से घूमती हुई जैसे कुछ खोजने लगीं।
पापा ने कातर होकर उधर से दृष्‍टि फेर ली। लेकिन माँ पागल-सी चीख उठीं-‘किसे ढूँढ़ रही हो बेटी? नवीन को? उसने ही तुम्‍हें इस हाल में पहुँचाया है न!' पर मौत के ठण्‍डे हाथों की छुअन महसूस करती वन्‍दना को अब किसी अपराधी के कुकृत्‍य का लेखा-जोखा प्रस्‍तुत करने की चिन्‍ता न थी। उसने अपनी सारी शक्‍ति बटोरी और खरखराते गले से कहा-‘वह कहाँ है?'
‘कौन, नवीन?'
‘न, मेरा बच्‍चा! बड़ी देर से रो रहा है। बहुत भूखा है।'
और उसके साथ ही वन्‍दना की साँसों का तार टूट गया।
ठीक उसी क्षण दूर एक मकान में, उसका दस दिन का दुधमुँहा अब भी हाथ-पाँव चलाते हुए ‘कुआँ-कुआँ किये जा रहा था।
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73 नार्थ ईदगाह, आगरा-10

 

(6) अंतहीन घाटियों से दूर

डॉ0 सतीश दुबे

बेड रुम के पलंग पर धंसी पड़ी तनु ने बाहर के कमरे से आने वाली तेज आवाजों से परेशान होकर कानों को जोरों से भींच लिया, पर आवाजें कानों के पर्दे चीरने पर तुली थीं।
वह अनजाने ही सोचने लगी, सुनने की चाह नहीं होने पर भी कुछ आवाजें बलात क्‍यों असर डालना चाहती हैं, उसने सोचा और एक कथा अचानक उसे याद आ गई..........डयूटी पर तैनात सैनिकों के परिवार की उस बस्‍ती में पहले पोस्‍टमेन की सायकिल की घण्‍टी के सुनते ही कुशलक्षेम पत्रों की संभावना लिए घरों के दरवाजे खुल जाया करते थे, किन्‍तु युद्ध शुरु होते ही घण्‍टी बजने पर द्वार बन्‍द होने लगे, सभी यह सोचते, कहीं ऐसा न हो कि डाकिया उनके परिवार के लिए मौत की खबर लाया हो।
बाहर से आने वाली आवाजें आज उसे उस डाकिये जैसी ही लग रही थीं।
बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद ही उसकी सगाई की बात निश्‍चल से चल निकली थी। निश्‍चल पी.सी.एस. की परीक्षा पास करके कुछ वर्षों पूर्व ही डिप्‍टी कलेक्‍टर बना था।
उसके माता पिता के लिए बेटे का डिप्‍टी कलेक्‍टर होना बहुत बड़ी उपलब्‍धि थी ओर उनके दिमाग में यह बात उपजने लगी थी कि पद की गरिमा कहीं बेटे को उनसे दूर न कर दे, इसीलिए वे साधारण परिवार से बहू लाना चाहते थे, तनु के रिश्‍ते के लिए भी उन्‍होंने निश्‍चल को इसी आधार पर तैयार किया था। निश्‍चल का विचार ठीक इसके विपरीत था, पर माँ के आग्रह पर एक बार लड़की देखने को तैयार हो गया था।
जिस दिन वह उसे देखने आया था, नीचा मुँह किए संकोच और कांपते हुए हाथों से उसने टेबल पर नाश्‍ता सर्व किया था, विश्‍वास ने भाई की ओर देखा तो वह अपनी कोड भाषा में धीरे से बोला था-नीतु माटु लाडे (तू बोलेगा) विश्‍वास मुस्‍करा दिया तथा ‘नमस्‍ते' की मुद्रा में हाथ जोड़कर जोरों से खिलखिला पड़ा, स्‍वाभाविक रुप से उसका सिर ऊपर उठ गया। उसने अनुभव किया निश्‍चल की तेज आँखें उसे घूर रही हैं, मानों कह रही हों-साली घूड़े में हीरे वाली बात कितनी सौ टंच सही है। उसे आश्‍चर्य तब हुआ, जब उसे पता लगा कि निश्‍चल ने वाग्‍दानहेतु सहमति दे दी है।
आश्‍चर्य इसलिए कि जहाँ से भी प्रस्‍ताव आये थे उसने कह दिया था-मैं एकदम प्रक्‍टिकल आदमी हूँ, फालतू की बातों में मेरा विश्‍वास नहीं। भावुकता की बैसाखी पर जिन्‍दगी का समझौता किसी से भी कर लेना बड़ी मूर्खता है......।
उसकी इस प्रकार की बातें सुन कर धीरे-धीरे यह चर्चाएं गरमाने लगी थीं कि शिक्षित व्‍यक्‍ति चालाक और नैतिक दृष्‍टि से गिरा हुआ होता है।
वाग्‍दान के बाद देवर विश्‍वास उससे मिलने-जुलने आता रहता। पहले वह बाहर के कमरे में बड़े भाई और पिताजी से बातें करता फिर माँ और छोटी बहन सुन्‍नी के साथ उससे, इस कमरे में। माँ घर में हालचाल पूछ कर किचिन में चली जाती और वह विश्‍वास से धीरे-धीरे घर की जानकारी लेने लगी। उसे लगा वह एक ऐसे परिवार में जा रही है, जहाँ उसके विचार स्‍वातंत्रय को प्रोत्‍साहन मिलने की संभावना है, और फिर डिप्‍टी कलेक्‍टर की पत्‍नी। वह कभी-कभी रोमांचित हो उठती।
विश्‍वास डिप्‍टी कलेक्‍टर के दफ्‍तर की बातें जब सुनाता तो उसे लगता, कितनी बोरियत होती होगी, मानसिक तनाव, राजनीतिक झगड़े-झंझट और फिर घर की मुसीबतें।
विश्‍वास एक दिन ऐसी ही बातें कह रहा था। वह माँ और सुन्‍नी के साथ चटखारे ले-लेकर सुन रही थी.........तभी उसने कहा- -तनु भाभी, एक जोरदार बात। आपने निश्‍चल भैया की अब तक तारीफ ही सुनी। आज की ताजा बात सुनो तो आश्‍चर्य करने लगो।
-सुनाओ न! माँ और सुन्‍नी एक साथ बोलीं।
-देखिये, मैं तो अपनी बात भाभी से ही कहूँगा। वह मुस्‍करा दिया।
-तो कहिये न!
-ऐसे नहीं, तखलिया- सुन्‍नी झट उठी और तकिया ले आई।
-लीजिये, बैठिये आराम से और सुनाइये।
-सुन्‍नी! तुम कौन की क्‍लास में पढ़ती हो?
-इलेवैंथ में...........
-पिक्‍चर देखती हो?
-कभी-कभी।
-एक पुरानी पिक्‍चर अभी लगी थी, ‘मुगले आजम', देखी?
-नहीं..........
-तो देखो, और समझो कि तखलिया का मतलब तकिया लगाना नहीं होता।
उसकी हँसी रोके नहीं रुक पा रही थी, सुन्‍नी झेंप-झाप कर वहाँ से जाने लगी तो विश्‍वास ने रोक लिया।
सुन्‍नी, इसका मतलब तो समझती जाओ........भाभी आप ही बता दीजिये। तो आप मेरी भी परीक्षा लेना चाहते हैं?
नहीं-नहीं...........ऐसी बात नहीं।
ऐसी बात नहीं न! तो मैं बताए देती हूँ-सुन्‍नी-सुनो ; तखलिया का मतलब होता है, एकान्‍त चाहना ; जब विश्‍वास जैसे कहे तखलिया-तो इसका मतलब हुआ, हम एकान्‍त चाहते हैं।
सुन्‍नी और माँ मुस्‍कराते हुए वहाँ से चले गये।
तनु भाभी! आज घर पर बड़ा बखेड़ा हो गया। लफड़ा ये फँसा कि भैया के दफ्‍तर में पापाजी के एक मित्र का केस चल रहा है, भैया दो हजार के बिना केस निबटाने को तैयार नहीं। पापाजी को जब मालूम पड़ा कि लफड़ा ये है तो उन्‍होंने भैया से कहा, पर भैया टस से मस नहीं हुए। उन्‍होंने तो भाभी, पापाजी से साफ-साफ शब्‍दों में कह दिया कि यह उनका आफिशिएल मामला है। पापाजी को आश्‍चर्य हुआ कि उनके निश्‍चल ने ऐसा जवाब कैसे दे दिया। इसी बात को लेकर माँ भी कुछ बोलीं, पर मामला नहीं टला।
लगता है आपके भैया बड़े जिद्दी हैं।
जिद्दी! अरे भाभी नम्‍बर एक के जिद्दी कहो।
कुछ इलाज नहीं है?
इलाज! हम सब लोगों ने तो हथियार डाल दिए हैं, अब शायद अॉपरेशन ही आप करें।
और दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े थे।
एक दिन विश्‍वास ने उसे बताया था। डिप्‍टी कलेक्‍टर्स का एक सेमीनार पंचमढ़ी में होने जा रहा है। भैया के सभी साथी सपरिवार जा रहे हैं और भैया चाहते हैं कि आप भी उनके साथ जायें, जबकि माँ इसका विरोध कर रही हैं, उसका कहना है कि शादी हुई नहीं है, ऐसी स्‍थिति में अकेले जाना ठीक नहीं लगता, हाँ साथ में कोई और जाये तो ठीक। पर भैया, सब वही पुरानी जि�द, एक ही रट लगाये हैं-सबके बीच मेरी नाक नहीं कटेगी? अपनी मर्यादा को आप लोगों ने पहले समझ लेना था।
उसे ख्‍याल आया विश्‍वास ने माँ को यह बात बताई थी तो एक गहरी चिन्‍ता उनके चेहरे पर फैल गई थी। एक ऐसी चिन्‍ता जो जीवन के अनुभवों, समाज के मापदण्‍डों और अपने परिवार की स्‍थिति से जुड़ी हुई थी। निश्‍चल के प्रस्‍ताव को अंततः स्‍वीकार करना पड़ा। पिताजी की बेवसी और दयनीयता से भरी हुई बातों का जो उसने प्रत्‍युत्तर दिया था, उसमें लापरवाही मिश्रित दृढ़ता थी-उसने कहा था
-मुझ पर विश्‍वास रखिये, मैं उन्‍हें अपने साथ ले जाना भी नहीं चाहता, पर मैं यह भी नहीं चाहता कि अपने मित्रों के बीच अनजान बनूं या किराये की किसी लड़की को कम्‍पनी देने के लिए साथ ले जाऊं।
वह उससे भी मिला था तथा उसके रहन-सहन के स्‍तर पर टिप्‍पणी करते हुए बोला था-
यह क्‍या भोंड़ापन लगा रखा है। डिप्‍टी कलेक्‍टर्स की बीवियों का स्‍टैंडर्ड अलग ही ढंग का होता है। ऐसा न हो कि तुम केवल रहन-सहन के कारण मात खा जाओ। देखो मेरे कई फ्रेंन्‍डस जैसे श्रीवास्‍तव, खन्‍ना, अजीत सभी की पत्‍नियों के बाल कटे हुए हैं......तुम भी सेट करवा लो और कुछ आधुनिक तरीके की डे्रसेज ले लो, ताकि वहाँ घूमने-फिरने और पीने-बैठने के वक्‍त यूज में ले सको।
‘पीने-बैठने?' उसने आश्‍चर्य व्‍यक्‍त करते हुए दुहराया था।
‘मैं पीती-वीती नहीं..........।'
‘पीने का मतलब आप शायद वाइन समझ रहीं हैं, नो-नो डिं्रक तो मुझे सूट नहीं करता पर कभी-कभार बट यू डोंट वरी जैसा आप चाहेंगी-विलीव मी'....... लेकिन मैं इस सबके लिए कहाँ जाऊंगी-माँ को जैसे-तैसे आपके खातिर समझा लूंगी-पर बाल सेट करवाने का वे विरोध करेंगी-और यदि बाल नहीं कटवाये जायें तो.........आजकल कहाँ अंगरेजों की मेमें रहीं?
आप समझीं नहीं, हाय सोसायटीज में आजकल यही सब चलता है।
मुझे तो यह जरुरी नहीं लगता-आजकल डिप्‍टी कलेक्‍टर्स की बीवियां क्‍या, लेडी-कलेक्‍टर्स तथा सी.जे. तक भारतीय पद्धति से बाल संवारती हैं। आप नहीं समझेंगी तनुजी, ये उनकी प्रोफेशनल प्रक्‍टिस है। वे भारतीय बनकर सादगी ओढ़ती हैं और उल्‍लू सीधा करती हैं। यदि वे मेम बनकर या मेकअप करके सीट पर बैठें तो उनको कितनी आलोचनाएं सहन करनी पड़ें, उसकी आप कल्‍पना नहीं कर सकतीं।
खैर! छोड़िये मैं इन तर्कों की बजाय आपकी राय को महत्‍व देती हूँ जैसा आप ठीक समझें........।
आप कल तैयार रहिये, मैं जीप लेकर अॉफिस से डायरेक्‍ट इधर आ जाऊँगा। कुछ शॉपिंग हो जाएगा और हेयर डे्रसिंग भी।
दूसरे दिन वह जब शॉपिंग से लौटी थी, तब एकदम बदली हुई नजर आ रही थी। बॉव कट बाल, व्‍यवस्‍थित लम्‍बी आई-ब्रो और चेहरा एकदम साफ। कन्‍धे पर बैग लटकाये, फटक-फटक कर सैन्‍डिल बजाती हुई जब वह जीना चढ़ने लगी तो आसपास के बच्‍चे उसे आश्‍चर्य से ताकते रहे।
पिपरिया स्‍टेशन से ट्रेन स्‍टार्ट होने के बाद प्‍लेटफार्म पर उतरे लोगों ने एक दूसरे का परिचय लिया तथा सेमिनार ग्रुप एक घेरा बनाकर खड़ा हो गया।
उसने देखा अधिकांश महिलांए स्‍मार्ट लग रही हैं, तड़क-भड़क वाली वेशभूषा और आकर्षक मेकअप। वह सोचने लगी उसने ठीक ही किया जो निश्‍चल की इच्‍छा के अनुरुप साधन जुटा लिए। नहीं तो वह इन लोगों के बीच अपने को अकेला महसूस करती।
सभी लोग एक-दूसरे का परिचय ले रहे थे, वह भी अब अपरिचित नहीं रही थी।
पिपरिया से पंचमढ़ी पहुँचने तक वह रास्‍ते की प्राकृतिक सुषमा में खोई रही। सर्पीले रास्‍तों के मोड़, वन-मार्ग और अंतहीन घाटियाँ। उसने सोचा था-वह अपने जीवन का प्रारंभ अंतहीन घाटियों को देखने से क्‍यों कर रही है, पर टर्मिनोलिया शिपुला के वृक्षों की मौन भीड़ के मध्‍य उसका प्रश्‍न कहीं खो गया था।
‘हॉली डे हाऊस' के स्‍वतन्‍त्र फ्‍लैटस को देखकर वह सब कुछ भूल गई थी। निश्‍चल दोपहरी भर सेमिनार अटेन्‍ड करता और चार बजे के करीब लौट आता। इसके बाद सभी लोग टुकड़ियों में बंट जाते और सूर्यास्‍त की किरणों से स्‍नान करने वाली लम्‍बी नीलारुण वृक्षों की वादियों में विचरण करते। कभी लिटिल-फॉल, कभी जटाशंकर, कभी धूपगढ़, कभी संगम और कभी वनश्री विहार।
एक दिन दोपहरी में बूढ़ा चौकीदार एक पिंजरा लाया, जिसमें नीले कबूतर बन्‍द थे-बीबीजी ये बड़ी मुश्‍किल से पकड़कर लाया हूँ।
बीबीजी, ये चटटान की कोटरों में पांव फैलाकर तैरते रहते हैं और थोड़े से उड़ कर फिर चटटानों की कोटरों में चले जाते हैं। ले जाओ बीबीजी, दस रुपये का पिंजरा।
उसने सोचा इतने स्‍वच्‍छन्‍द वातावरण में रहते हुए भी ये नन्‍हें पक्षी अपने को कोटरों में बन्‍द क्‍यों कर लेते हैं, शायद सुरक्षा के लिए। स्‍वयं उत्तर देकर उसने अपने मानसिक उद्वेलन को शांत किया था।
दूं क्‍या बीबीजी?
नहीं बाबा-कहाँ ढोते फिरेंगे।
वह चला गया, किन्‍तु वह सोचती रही थी चटटान, कबूतर, सीमित उड़ान और वापस चटटानों के बीच जाने के बारे में।
उस दिन जब निश्‍चल लौटा था, तब वह सिर में कुछ भारीपन महसूस कर रही थी। निश्‍चल ने प्रस्‍ताव रखा।
तनु! चलो आज हम अकेले ही कहीं घूम आयें। वह उसके आग्रह को टाल नहीं सकी। इस बीच सभी परिवारों के मध्‍य उसने अपनी विशिष्‍ट स्‍थिति बना ली थी। उसका सौन्‍दर्य वाकपटुता और शायराना अन्‍दाज की बातों ने सबको प्रभावित किया था।
निश्‍चल खुश था, इसलिए कि उसके साथियों ने ही नहीं बल्‍कि सेक्रेटरी ने भी उसके भाग्‍य को सराहा था।
वे दोनों घूमते-फिरते पंच-पांडव पहुँच गये। ऊपर टेकड़ी पर पिछले हिस्‍से की ओर जाकर वे बैठ गए। नीचे अनेक वृक्षों का समूह घाटियों में दिखाई दे रहा था। डूबते सूरज का समय था। पत्तों से छन-छन कर किरणें विभिन्‍न रंगों में उतर रही थीं। सूरज की सब किरणों ने मिलकर उसे घेर लिया था। चेहरे की लालिमा बढ़ गई थी। बाल रोशनी से घिर गए और शरीर का एक-एक मोड़ जगमगाने लगा था।
निश्‍चल कुछ देर उसे ताकता रहा, फिर उसने उसका हाथ थाम लिया था, बालों को एक झटका देकर उसने उसकी ओर निगाह उठाई ही थी कि वह बोल पड़ा-
तनु ये रतनारी आँखे मुझे किल कर देंगी, प्‍लीज ऐसे मत ताको। वह उसे अपनी ओर खीचना चाह ही रहा था कि वह उठ खड़ी हुई।
चलो, अब चलें।
खाने से निबट कर, वह पलंग पर जाकर लेट गई। पैदल चलने से थकान बढ़ गई थी, और पहले से दर्द कर रहे जोड़ों का दर्द वह अधिक अनुभव करने लगी थी। वह उठ कर बैठ गई तथा दोनों हाथों से एक के बाद एक पैर दबाने लगी। अधिक थक गई क्‍या, लो ये पी लो। उसने एक गिलास लाकर उसे दिया था।
बड़ी तीखी है, वाइन तो नहीं।
अरे नहीं! पैरों में शायद ज्‍यादा दर्द महसूस कर रही हो, लाओ अमृतांजन मल देता हूँ।
आप अपने कमरे में जाकर आराम कीजिए मैं तो थोड़ी देर में ठीक हो जाऊंगी। वह अपने पलंग पर आँखें मूंद कर लेट गई थी।
लाओं भी.........। वह उसके पैर दबाने लगा था थोड़ी देर बाद उसने उसके पैरों पर मालिश भी की। वह राहत महसूस करने लगी थी।
अब रहने दीजिये। उसने अपने पैर खींच लिए तथा कृतज्ञता व्‍यक्‍त करने की दृष्‍टि से निश्‍चल का हाथ थोड़ी देर के लिए अपने हाथ में लेकर छोड़ दिया था।
ज्‍यादा थक गईं न! मुझे तो लगता है, इस जंगल में तुम्‍हें नजर लग गई! है न!
निश्‍चल उसके चेहरे पर झुक गया। धीरे-धीरे वह अपना भार उस पर डालता रहा और उसकी स्‍थिति यह थी कि वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था टर्मिनोलिया शिपुला के लम्‍बे वृक्षों के बीच किसी अन्‍तहीन घाटी के बींच वह खो गई है।
पंचमढ़ी से लौटने के बाद विश्‍वास फिर वैसे ही आने लगा था। घर में शादी की चर्चाएं गर्माने लगीं और वह महीनों का हिसाब लगाती रही। दो महीने तो कुल बचे हैं-उसने सोचा था।
मेहमानों की लिस्‍ट, बाजार की खरीददारी, खाने की मीनू, रसोइये की तलाश जैसे विषय अब घर में चर्चा के सामान्‍य विषय थे।
इसी बीच एक दिन उदास चेहरा लेकर विश्‍वास आया था। तनु भाभी! भैया ने मालूम है आज नया बखेड़ा खड़ा कर दिया........ क्‍या? उसने मुस्‍करा कर बालों को एक झटका दिया तथा बड़ी अजीजी की मुद्रा में विश्‍वास के चहरे पर आँखें गड़ा दीं। उसे निश्‍चल की जिद्द भरी बातें सुनने में मजा आने लगा था।
सुनोगी तो, सच कहता हूँ-रो पड़ोगी।
बतायेंगे भी या यूं ही पहेली बुझाते रहेंगे, क्‍या इस बार दिल्‍ली जाना पड़ेगा।
नहीं, नहीं, ये बात नहीं। उन्‍होंने दूसरा बखेड़ा खड़ा कर दिया-उनके किसी साथी को ससुराल से कार मिली-वे भी कार के लिए जिद कर रह हैं-पिताजी तथा माँ उन्‍हें समझाते-समझाते परेशान हो गए-पिछले आठ-दस दिनों से यही सब कुछ चल रहा है।
वह सकते में आ गई थी-उसे लगा उसकी स्‍थिति हांडी खो के नीले कबूतरों सी हो गई है, जो थोड़े से उड़ कर फिर चटटानों की कोटरों में घिर जाने के लिए विवश हैं। वह सोचने लगी थी क्‍या एक शिक्षित और विवेकशील व्‍यक्‍ति को यह शोभा देता है कि थोड़ा सा उड़ने की कोशिश करने वाले कबूतरों को भी पिंजरे में बन्‍द कर ले और रोटी-रोजी का माध्‍यम बनाकर किसी भूखे बूढ़े के समान इधर-उधर बेचता फिरे।
उस दिन विश्‍वास कब गया, उसे कुछ ख्‍याल नहीं।
पिताजी को भी निश्‍चल ने एक दिन अपने दफ्‍तर में बुला कर साफ-साफ कह दिया था कि वह अपनी जिन्‍दगी का सौदा किसी भावुकता पर करना नहीं चाहता, जिस परिवार की लड़की को जिन्‍दगी भर पालो, अपने स्‍तर के अनुरूप उस पर खर्च करो; उसके पालकों को जिन्‍दगी भर के संरक्षकों की कोई बात कम से कम एक बार तो मान लेना चाहिए।
यह सब सोचना मेरा या मेरे परिवार का नहीं है कि वह व्‍यवस्‍था आप कैसे करेंगे या आपकी वाग्‍दत्ता लड़की का क्‍या होगा।
दफ्‍तर में ही जाकर एक दिन वह भी निश्‍चल से मिली थी। उसे भी उसने साफ-साफ कह दिया था कि इन नाजुक प्रश्‍नों पर वह उससे चर्चा नहीं कर सकता, न ही जजबातों जैसी लिजलिजी मानसिकता में उसका विश्‍वास है। लेकिन न्‍याय के ऊँचे सिंहासन पर बैठकर आप यह क्‍यों भूल जाते हैं कि आपकी सन्‍तान मेरे पेट में पल रही है। वह गिड़गिड़ाते हुए धीरे से बोली थी। मेरी सन्‍तान.........वाट सन्‍तान...........मेरी कोई सन्‍तान-वंतान नहीं-डांट ट्राय टू विफूल मी- मैंने जो सुना था कि छोटे घरों की लड़कियाँ पाप करके दूसरों पर थोपती हैं, वह आज अपने कानों से सुन रहा हूँ।
चुप रहिये........मुझे नहीं मालूम था आप इतने अविवेकी और निर्लज्‍ज हैं-मैं तुम्‍हारा मुँह देखना नहीं चाहती।
आय से यू गेट आऊट-और उसने जोरों से घण्‍टी का बटन दबा दिया था। वह क्रांय-क्राय कर चित्‍कार उठी।
वह कुर्सी पर उठ बैठी थी और गुस्‍से में कक्ष के शटर को जोरों से धकेलती हुई बाहर आई थी।
तनु दरवाजा खोलो। दरवाजे पर दस्‍तक निरंतर तेज होती जा रही थी। आँखों में आ गई नमी को साड़ी के पल्‍लू से साफ कर वह उठ बैठी तथा दरवाजा खोल दिया।
तनु! विश्‍वास तुमसे मिलना चाहता है। उसके बड़े भाई धीरज ने पलंग पर बैठते हुए कहा।
वह क्‍यों आया?
सगाई में निश्‍चल को दिया सूट वापस करने।
ठीक है, दे दे और चला जाए। मैं नहीं मिलना चाहती।
इसी बींच विश्‍वास कमरे के अन्‍दर आ गया। धीरज वहाँ से उठ कर बाहर चला गया।
क्‍यों क्‍या कहना चाहते हो-क्‍या भैया ने कोई नया बखेड़ा खड़ा कर दिया? तनु व्‍यंग्‍य से मुस्‍करा दी।
तनुजी! क्‍या आप मुझसे भी नाराज हैं?
ये सब बेकार की बातें छोड़ो। मुझे ये बताओ तुम चाहते क्‍या हो?
क्‍या यह सूट आप मुझे दे सकती हैं?
मेरे देने का मतलब, ले जाओ मैंने मांगा कब.......?
नहीं, नहीं, मेरा मतलब..........मैं भैया की ज्‍यादती को समझ रहा हूँ-और आपको अपनाना..........।
चुप रहो। तुम मेरी मजबूरी को मजाक बनाकर मुझ पर अहसान करना चाहते हो। मैं जानती हूँ तुम मुझ पर दया नहीं, अहसान करना चाहते हो ताकि जिन्‍दगी भर मैं तुम्‍हारे पैर सहलाती रहूँ। जहाँ आदमी संस्‍कारों से इतना नीचे गिर जाता है, वहाँ मुझे किसी के आसरे की जरुरत नहीं। मैं कहती हूँ-तुम चले जाओ। मैं तो चला जाऊँगा पर आप गम्‍भीरता से सोचिये। भैया बता रहे थे एक बार दफ्‍तर में जाकर आपने बच्‍चे के भविष्‍य सम्‍बन्‍धी कोई बात कही थी। उस बच्‍चे का क्‍या होगा जो आपके पेट में.........?
बच्‍चा! कैसा बच्‍चा!! क्‍या तुम्‍हारे घर में सभी निर्लज्‍ज और बेशर्म लोग हैं। तुम्‍हें ऐसा कहते शर्म नहीं आती। तुम यह जान लो तुम्‍हारे निकम्‍मे भाई को मैंने अपने पास नहीं फटकने दिया। जानते हो ऐसा कहकर तुम मेरा अपमान कर रहे हो। मैं कहती हूँ तुम चले जाओ।
तनु हांफने लगी। उसका अंग-प्रत्‍यंग कांप रहा था। आँखों से आग के रेशे निकल रहे थे, फिर भी एक दृढ़ता वह अपने आप में महसूस कर रही थी। विश्‍वास चला गया।
अब तक माँ कमरे में आ चुकी थी। वह उससे लिपट कर रो पड़ी। माँ ने उसे पलंग पर बिठा लिया तथा थोड़ी देर सो लेने का आग्रह करने लगी। शाम को उसका मन शांत हुआ तो उसने माँ को सब बातें बता दीं- माँ! बचपन में तुमने मुझे हमेशा नंगा देखा है, आज मैं अपनी कमजोरी को तुम्‍हारे सामने नंगा कर रही हूँ मुझे माफ कर दो।
उसने माँ के पैर पकड़ते हुए कहा-लेडी डाक्‍टर मिस भार्गव मेरी बात मान लेगी, तुम मेरे साथ चलो मैं तुम्‍हें धोखे में नहीं रखना चाहती।
तनु, लेकिन बेटे। माँ उसकी मजबूरी को समझ रही थी। उसने उसके सिर पर प्‍यार से हाथ फेरते हुए कुछ कहना चाहा, किन्‍तु उसने रोक दिया।
कुछ नहीं माँ, तुम चिन्‍ता मत करो-मैं एक सडांध अपने पेट में महसूस कर रही हूँ-यदि यह साफ नहीं हो पाई तो उसकी दुर्गन्‍ध से मैं मर जाऊँगी। बोलो, तुम क्‍या चाहती हो?
तनु!! माँ ने अपनी बाहें फैलाकर उसे गले लगा लिया।
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766, सुदामानगर, इंदौर (म.प्र.) - 452009

(7) आप ऐसे नहीं हो

श्रीमती मालती बसंत

हरीश ने जैसे ही मानसिक चिकित्‍सालय के परिसर में कार रोकी, कुछ महिलायें दौड़ती हुई आयीं, एक महिला चढ़कर कार के बोनट पर बैठने लगी, एक उसके कांच पर हाथ फेरने लगी, कोई दूर से ही कार को देखकर ताली बजाने लगी। उन विक्षिप्‍त महिलाओं की इस स्‍थिति को देखकर हरीश का मन दुःख से भर गया, इनका भी क्‍या जीवन है? इन स्‍त्रियों को तो अपनी स्‍थिति का भान भी नहीं है, कि वे क्‍या कर रही हैं? हरीश मन ही मन डर रहा था, उसकी पत्‍नी की भी यह हालत न हो पर उसकी पत्‍नी की स्‍थिति कुछ अलग थी।
हरीश के विवाह को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि उसको अपनी नवविवाहिता पत्‍नी को इस मानसिक चिकित्‍सालय में भर्ती कराना पड़ा।
विवाह के बाद हरीश को महसूस हुआ कि उसकी पत्‍नी उससे न बोलती है, न हँसती, न रोती बस अक्‍सर शून्‍य में देखा करती। एक दिन उसे फिट पड़ने पर हरीश ने अपने ही शहर में इस मानसिक चिकित्‍सालय में भर्ती कर दिया।
हरीश नियमित रूप से दोनों समय उसे खाना देने जाता। आज भी वह खाना लेकर आया था, उसे पता था कि वह उससे बोलेगी नहीं, फिर भी उसका कर्तव्‍य था वह उसे खाना दे उससे बोले। हरीश जब उसके वार्ड में पहुँचा तो उसने देखा उसकी पत्‍नी निर्मला अपने बाल संवार रही थी। उसकी उपस्‍थिति को अनदेखा कर वह उसी तरह बाल संवारती रही। इस समय वार्ड पूरी तरह खाली था। सारी स्‍त्रियाँ बाहर थीं। हरीश आज बहुत सोचकर आया था, वह आज यह कहेगा वह कहेगा। किन्‍तु यहाँ आकर वह सब कुछ भूल गया। वह कुछ देर तक उसे चुपचाप देखता रहा, फिर उठकर बोला ‘‘मैं जा रहा हूँ, खाना रख दिया है, खा लेना'' उसने कुछ देर उत्तर की प्रतीक्षा की पर उत्तर न पाकर वह अपने दफ्‍तर, जा पहुँचा उसका मन दफ्‍तर के काम में नहीं लग रहा था। उसके दिमाग में केवल निर्मला का चेहरा ही घूमता रहा। वह अब क्‍या करे उसकी समझ में नहीं आता। माँ के कितने मना करने पर भी उसने निर्मला से विवाह किया था। माँ का विचार था कि हरीश शहर की ही किसी पढ़ी-लिखी लड़की से विवाह करे, जो उसका साथ दे सके, किन्‍तु हरीश के विचार ही अलग थे।
उसने निर्मला को अपने किसी मित्र के यहाँ देखा था, जो उसके मित्र की रिश्‍ते की बहन थी। सीधी साधारण वस्‍त्रों में निर्मला उसे बहुत अच्‍छी लगी थी, आधुनिक फैशन परस्‍त तितलियाँ उसे पसन्‍द नहीं थीं।
हालाँकि निर्मला केवल दसवीं पास थी, फिर भी निर्मला का मासूम भोला-भाला चेहरा उसे भा गया था। केवल इसी आधार पर वह निर्मला से विवाह करने की जिद कर बैठा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उससे कैसे कहाँ गलती हो गई?
दूसरे दिन हरीश सीधे निर्मला के पास न जाकर, डॉक्‍टर के पास गया।
डॉक्‍टर ने कहा ‘‘शारीरिक रूप से वह पूर्ण स्‍वस्‍थ है। मानसिक रूप से अस्‍वस्‍थ नहीं लगती, क्‍योंकि वह कही गई बात को अच्‍छे से समझती है बस जवाब नहीं देती, उसके मन में कोई अवश्‍य ऐसी बात है, जो परेशान कर रही है, जिससे वह अवसादग्रस्‍त है। तुम्‍हें उस बात को बाहर निकालना होगा। इसके लिए बहुत धैर्य की जरूरत है। उसे प्रेम और विश्‍वास से जीतना होगा। वह कुछ भी कहे, उसका बुरा नहीं मानना, लेकिन उसको कुछ कहना जरूरी है अन्‍यथा उसके दिमाग पर बुरा असर पड़ सकता है।''
‘‘सर! मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।'' हरीश का गला एकदम भर्रा सा गया, जिसे उसने शीघ्र ही संभाल लिया।
‘‘चिन्‍ता किसी बात की नहीं है मि. हरीश धैर्य रखिये वह बोलें या न बोलें आप उनसे बात करने की कोशिश कीजिये, अपने अतीत की बातें कीजिये। उनके हाव-भाव से जानिये कि उनकी पसन्‍द नापसंद क्‍या है?''
हरीश डॉक्‍टर से मिलकर निर्मला के वार्ड में पहुँचा। वह देर तक निर्मला से बातें करता रहा, उसने बीते दिनों की मनोरंजन इत्‍यादि की बातें की। उसने देखा निर्मला उसकी बात ध्‍यान से सुन रही है। पर कुछ नहीं बोली, लेकिन निर्मला की आँखों में चमक से उसे विश्‍वास हो गया कि निर्मला ठीक हो जायेगी।
वह उसके लिए सुन्‍दर-सुन्‍दर पत्र-पत्रिकाएँ ले गया, अपने जीवन की मनोरंजक घटनायें सुनाई, चुटकुले सुनाये, निर्मला के चेहरे पर मुस्‍कुराहट देखकर उसका मन उत्‍साहित हो उठा, उसे विश्‍वास होने लगा कि वह दिन-ब-दिन सफल होता जा रहा है।
दो चार दिन बाद हरीश फिर डॉक्‍टर से मिला और उसकी छुटटी की बात की तो डॉक्‍टर ने कहा ‘‘वह ठीक हो गई है, लेकिन जब तक वह आपसे बात न करने लगे तब तक विश्‍वास नहीं किया जा सकता, उसकी मानसिक समस्‍या का हाल उसके बोलने पर ही पता चल पायेगा। आप उसे कुछ घण्‍टे इस अस्‍पताल से बारह ले जा सकते हैं, इसकी अनुमति दे सकता हूँ। किसी पार्क में ले जाकर उसे घुमाइये और उसके मन की बात निकलवाईये।''
हरीश ने जब निर्मला से बाहर घूमने चलने की बात कही तो वह तुरन्‍त तैयार हो गई। हरीश उसे एक बहुत सुन्‍दर पार्क में ले गया। रंग-बिरंगे फूलों को देख निर्मला को बड़ी खुशी हुई ‘‘तुम्‍हें यह फूल अच्‍छा लगता है?'' हरीश ने एक फूल तोड़कर निर्मला को दे दिया।
‘‘मेरे बालों में यह फूल लगा दीजिये।''
‘‘क्‍या'' हरीश को उसके पहली बार बोले शब्‍द पर विश्‍वास नहीं हुआ ‘‘फिर से कहो निर्मला क्‍या चाहती हो।''
‘‘यह फूल मेरे जूड़े में लगा दीजिये।''
‘‘हाँ-हाँ क्‍यों नहीं, तुम ऐसे ही बोला करो निर्मला तुम्‍हारे बोलने से यह पूरा बाग महक उठा है।'' निर्मला उसकी बात सुनकर शर्मा गई।
‘‘बोली, आप तो ऐसे नहीं हो। जैसा मेरी सहेलियाँ कहती थीं।''
‘‘कैसा?'' हरीश ने जानना चाहा।
‘‘मुझ को, माँ-बाप से दहेज न मिलने पर जलाकर मार डालने वाले।'' ‘‘तुमने ऐसा कैसे सोच लिया।''
‘‘आपसे पहले जो भी मुझसे विवाह करने के लिए आये थे; केवल दहेज न मिलने पर उसने मुझे पसन्‍द नहीं किया- आप पहले व्‍यक्‍ति थे, जिसने दहेज की मांग नहीं की। मेरी सहेलियों का कहना था, जो दहेज नहीं मांग रहा, उसमें जरूर कोई खराबी होगी या हो सकता है, दहेज न मिलने से तुम्‍हें वह मार ही डाले, इसलिये मैं बहुत डर गई थी। आप मुझे अपने घर ले चलिये अस्‍पताल में नहीं रहूँगी।''
‘‘हाँ-हाँ, जरूर तुम्‍हारी आज ही छुटटी करवा लूँगा।'' हरीश ने जब डॉक्‍टर से निर्मला के बारे में सब कुछ बताया-डॉक्‍टर ने उसे घर जाने की इजाजत दे दी।
हरीश की खुशी की सीमा नहीं रही। वह अपने प्रयास में सफल हो गया था। सच है, प्रेम से सबका हृदय जीता जा सकता है। यह बात वह अपनी माँ को जल्‍दी से जल्‍दी फोन करके बता देना चाहता था।
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ई-112/2, शिवाजी नगर, भोपाल - 16
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(10) भैया जी का आदर्श

महेश सक्‍सेना

रामपुर नाम के एक छोटे से गाँव में रामदयाल गुरुजी रहा करते थे। वे बड़ी लगन और मेहनत से गाँव के बच्‍चों को पढ़ाते और सदाचार अपनाने की शिक्षा देते थे। गाँव के लोगों को गुरुजी अपने से लगते थे। गुरुजी के परिवार में उनकी पत्‍नी तथा चार बेटियाँ थीं जिन्‍हें वे समान रूप से स्‍नेह करते थे।
गाँव में कोमलप्रसाद नाम के एक प्रभावशाली सज्‍जन भी रहते थे जिनकी गिनती बड़े काश्‍तकारों में होती थी। वे सरल और सादा स्‍वाभाव के थे। गाँव के विकास कार्योंे में वे बड़ी रुचि लेते थे। गाँव की तरक्‍की का जब भी कोई काम आ पड़े तो वे ऐड़ी-चोटी का जोर लगाकर उसे कराके ही दम लेते थे। वे गाँव के प्रत्‍येक परिवार के सुख-दुःख में शामिल रहते थे। गाँव के लोग उनकी बड़ी इज्‍जत करते और आदर से उन्‍हें भैया जी कहते थे। उनके आराम के वक्‍त भी दुखियारा आ जाये तो सारे काम छोड़कर उसके साथ चल देते थे।
रामदयाल गुरुजी भैयाजी को अपना बड़ा भाई जैसा भी मानते थे। शाला और घर के कामकाज से फुर्सत पाते ही गुरुजी प्रायः रोज रात को भैयाजी के पास आकर बैठते और गाँव तथा शाला के विकास कार्यों पर चर्चा किया करते थे। रामदयाल गुरुजी की बड़ी बेटी पूनम बहुत लगन से पढ़ती थी। वह अच्‍छे अंकों से परीक्षा में पास होती। घर के कामकाज में भी वह पूरी तरह रुचि लेकर माँ का हाथ बंटाती थी। वह अपने शिष्‍ट और नम्र व्‍यवहार से सभी का मन मोह लिया करती थी। पूनम गाँव की शाला में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थी। वह आगे पढ़ना चाहती थी। गाँव में उच्‍च पढ़ाई की व्‍यवस्‍था न होने से रामदयाल ने उसे शहर के हॉस्‍टल में रखकर पढ़ाने का फैसला किया। जब इस बात की चर्चा उन्‍होंने अपनी पत्‍नी से की तो वे बोली ‘पूनम अब ब्‍याह योग्‍य हो गई है। आगे पढ़ाने के बजाय अब तो कोई अच्‍छा लड़का देखकर उसके हाथ पीले कर दो।
रामदयाल को अपनी पत्‍नी की सलाह अच्‍छी लगी। उस दिन से पूनम के लिये अच्‍छे वर की खोज करने में लग गये। सबसे पहले तो उन्‍होंने आसपास के गाँवों मेें जाकर अच्‍छे लड़के की तलाश की। कई जगह जाने के बाद भी बात जम नहीं पाई और कुछ जगह तो भारी दहेज की माँग की गई तो कहीं अति सुन्‍दर लड़की की बात कही गई। कई लड़के तो इतने गर्व भरे अन्‍दाज से बात करते कि दुबारा उनके घर जाने की रामदयाल गुरुजी हिम्‍मत ही नहीं कर पाये। इस तरह लड़के वालों की तरह-तरह की मीन-मेख और डींग भरी बातें सुनकर वे घर लौट आते।
एक दिन रामदयाल ने भैयाजी के पास बैठकर बदलते समय और दहेज की कुरीति पर बात की तो भैयाजी ने उन्‍हें समझाते हुये कहा ‘‘ईमानदारी और मेहनत की गाढ़ी कमाई से जी रहे हो। इसलिये देखना तुम्‍हें दामाद भी नेक और गुणवान ही मिलेगा।''
समय बीतता गया। कई महीनों की भाग-दौड़ के बाद संयोग से एक दिन भोजपुर गाँव के मायाराम के बेटे से विवाह की बात आगे बढ़ी। मायाराम को गुरुजी की लड़की पूनम बहुत पसंद आई और रिश्‍ता पक्‍का हो गया तो विवाह की तारीख भी तय हो गई। दहेज की कोई बात खुलकर सामने नहीं आई। लेकिन हर लड़की वाले की तरह गुरुजी ने भी यह जरुर कहा कि पूनम की शादी तो मैं अपनी हैसियत से ज्‍यादा करुँगा।
रामदयाल बड़े जोर शोर से शादी की तैयारी में जुट गये। हलवाई, शामियाना, बारात ठहराने आदि का प्रबन्‍ध सब कुछ बहुत दिन पहले ही कर लिया। एक दिन गुरुजी के दरवाजे पर बारात आ चुकी थी। सारा गाँव बारात का स्‍वागत बड़े उत्‍साह से कर रहा था। पूनम की सहेलियाँ उसे चारों तरफ से घेरे खड़ी थीं। कई तरह की रस्‍में हुइर्ं। बारात का स्‍वागत भी बड़ी धूमधाम से हुआ। इसी बीच कुछ कानाफूसी शुरु हुई। लड़के के पिता ने रामदयाल को बुलाकर कहा-‘फेरे तो तभी पड़ेंगे जब आप बेटे को मोटरसाइकिल देंगे।'
यह सुनते ही गुरुजी के पैरों से जमीन खिसक गई। उनकी आँखों के सामने अँधेरा सा छा गया। फिर वे स्‍वयं को सम्‍हालते हुये बोले-‘मायारामजी दहेज की तो आपने कोई बात नहीं की थी। मैं गरीब आदमी तो मोटरसाईकल खरीदने की रकम जुटाने में असमर्थ हूँ। हाँ विवाह हो जाने दीजिये। आखिर यह मेरा दामाद ही है भविष्‍य में बन सका तो मैं मोटरसाईकिल दिला दूँगा।
तभी लड़के के मामा बोले ‘देखो जीजाजी मैंने आपसे पहले ही कहा था ऐसे लोगों के यहाँ रिश्‍ता न करें लेकिन आप मेरी बात मानें तब न। अब आपको जरा सी भी अपनी प्रतिष्‍ठा का ध्‍यान हो तो बारात वापस ले चलिये।'
रामदयाल बोले ‘आप मेरी इज्‍जत धूल में मिलाने को क्‍यों तुले हैं। बारात वापिस गई तो पूरे गाँव में मखौल बन जायेगा।'
पास ही में खड़े कुछ बुजुर्गांे ने मायाराम को तरह-तरह समझाने की कोशिश की परन्‍तु मायाराम टस से मस नहीं हुये। रामदयाल मन ही मन सोच रहे थे बारात वापिस चली गई तो बड़ी बदनामी होगी। जितने मुँह उतनी बातें होंगी। लड़की के चरित्र पर भी लांछन लगाने में लोग नहीं चूकेंगे। फिर दूसरी जगह रिश्‍ता तय करना भी तो मुश्‍किल ही होगा। यह सोचते ही उनकी आँखों से आँसू छलक पड़े। आगे बढ़कर उन्‍होंने मायाराम के पैर पकड़ लिये और बोेले ‘समधी साहब, मेरी लाज रख लीजिये। मेरी बेटी का जीवन बर्बाद न कीजिये। भगवान मायाराम भला कब मानने वाले थे और बोले ‘हमने जो निश्‍चय कर लिया है वह तो पूरा होना ही चाहिये। वरना यह समझो कि बारात वापिस ही जायेगी।'
मायाराम के बदलते तेवर को देखकर उनका बेटा भी गुस्‍से में बल खा रहा था। उसे अपनी हेठी लग रही थी। वह बोला - ‘‘बापू बारात वापिस ही जायेगी।''
जब पूनम ने यह सब सुना तो उसके सब्र का बाँध टूट गया। उसने अपने रिश्‍ते के एक भाई से सिसकते हुये कहा - ‘‘पिताजी से कह दो कि वह इस लड़के से ब्‍याह करेगी ही नहीं।''
बेटी का यह संदेश पाकर गुरुजी बोले - ‘‘मायाराम जी आप मेरे सारे किये पर पानी क्‍यों फेर रहे हैं। मेरी विवशता और प्रतिष्‍ठा पर तो जरा सहानुभूति से विचार कीजिये।''
मायाराम ने यह सुनकर मुँह टेढ़ाकर इशारे से बारातियों को वापिस चलने को कहा। यह सुनकर रामदयाल गुरुजी बारातियों को रोकने के लिये आगे बढ़े ही थे कि एक बुलंद आवाज गूँजी - ‘‘गुरुजी इन दहेज लोभियों से कहो कि एक पल देर किये बिना ही बारात वापिस ले जायें और अपने बेटे को किसी अच्‍छी जगह बेचें।''
गुरुजी भैयाजी की ऐसी बात सुनकर और उनका मुँह देखकर चकित होकर बोले - ‘‘अरे भैयाजी यह क्‍या कह रहे हो। मेरी बेटी क्‍या अनव्‍याही ही रह जायेगी।''
भैयाजी बोले - ‘‘घबराओं नहीं, मेरे बेटे के साथ पूनम का विवाह आज अभी इसी मंडप में होगा। इतना सुनते ही बाराती सकते में आ गये और अपना सा मुँह लिये मायाराम और बाराती के बैरंग लौट जाने के बाद पूनम सजी संवरी मंडप में बैठाई गई और थोड़ी देर में ही भैयाजी का बेटा श्‍याम दूल्‍हा बनकर मंडप में आ पहुँचा।
महिलाओं ने ढोलक की थाप पर मंगलगीत गाना शुरु किया। तब पूरे गाँव के सामने श्‍याम और पूनम विवाह के बन्‍धन में बंध गये। बिदा के समय रामदयाल भैयाजी का हाथ पकड़कर बोले - ‘‘आपने मुझ पर सचमुच ही बहुत बड़ा उपकार किया है। समाज में एक आदर्श उपस्‍थित किया है।''
भैयाजी बोले - ‘‘मैं पूनम जैसी सुन्‍दर और सुशील बहू पाकर प्रसन्‍न हूँ।'' उस दिन उस गाँव के लोगों ने यह निश्‍चित किया कि दहेज जैसी घिनौनी कुप्रथा को समाप्‍त करने के लिये न स्‍वयं दहेज लेंगे और दूसरों को भी दहेज लेने और न देने के लिये कहेंगे।
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ई. डब्‍लू. एस. - 9,
कस्‍तूरबा स्‍कूल के पीछे,
नार्थ टी.टी. नगर भोपाल।
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14-दूसरा पहलू

पुष्पा रघु

उस दिन भी रोज की तरह दोपहर के भोजन के बाद एक पत्रिका लेकर बैठी ही थी कि द्वार की घंटी टनटना उठी। द्वार खोला तो पडोसन ममता थी वह एक कार्ड पकड़ाते हुए बोली-‘‘माफ करना बहनजी आपको डिस्‍टर्व कर दिया। क्‍या करुँ सुबह की निकली हूँ कार्ड बाँटने, दोपहर हो गई। अकेली हूँ ना। परसों आपकी बिटिया अनुपमा की शादी है। आपको सपरिवार आना है।''
‘‘यह तो बहुत खुशी की बात है। बहुत-बहुत बधाई हो!'' सचमुच ही यह समाचार सुनकर मन प्रसन्‍न हो गया था। साथ ही यह जानकर उत्‍सुकता भी उपजी कि कौन होगा जो एक विकलांग लड़की को अपनाने का पुण्‍यकार्य कर रहा है? वह भी विकलांग ही होगा। फिर भी बहुत बड़ी बात है कि एक विधवा अपनी ऐसी पुत्री का विवाह करने में सफल हो गई वरना आजकल तो....! ईश्‍वर इसका वैवाहिक जीवन सुखी और सफल बनाना! मैनें दुआ मांगी।
ममता बड़ी जीवट वाली महिला है। छोटी-छोटी तीन लड़कियों के विवाह का भार छोड़ उसके पति एक दुर्घटना का शिकार हो गए। ममता ग्रेजुएट थी अतः पति के आफिस में नौकरी मिल गई परन्‍तु पिता के साथ बैठी अनुपमा अपनी एक टांग खो बैठी। वह एक अस्‍पताल में रिशेप्‍सनिष्‍ट थी बहुत ही सुन्‍दर, सौम्‍य मृदुल लड़की थी वह।
विवाह समारोह घर के निकट एक छोटे से वैंकेट हॉल में था। सादा और सुरुचिपूर्ण सजावट थी। कम ही लोग आमन्‍त्रित थे। तभी बारात आ गई, बीस-पच्‍चीस व्‍यक्‍ति होंगे। हम लोग स्‍वागत के लिए द्वार पर पहुँचे।
‘‘ये दूल्‍हे की मम्‍मी है।'' कह कर ममता ने एक दुबली-पतली वृद्धा को हाथ जोड़े एवं पुष्‍पगुच्‍छ भेंट किया। मैंने भी हाथ जोड़कर नमस्‍कार किया। वह महिला कुछ पल मुझे देखती रही फिर मेरे हाथ पकड़ कर बोली......... ‘‘तुम.......तुम वंदना हो न!'' वह मुझ से लिपट गई। उसकी आवाज मेरे स्‍मृति-पट खटखटा रही थी पर मैं उसे पहचान न पाई। मेरी मनः स्‍थिति को भांप वह बोल उठी-'' अरी! मैं रमा हूँ तेरी दिल्‍ली वाली सहेली।''
ममता औरों के स्‍वागत सत्‍कार तथा अन्‍य लोकाचारों में व्‍यस्‍त हो गई तथा मैं और रमा एक दूसरे में। मैं रमा को देख कर व्‍यथित-विस्‍मित थी। मेरा हृदय यह मानने को प्रस्‍तुत ही नहीं हो रहा था' - यह वृद्धा, मूर्तिमन्‍द वेदना मेरी वही रमा है जिसे छः साल पूर्व दिल्‍ली में छोड़ा था। गोरी-चिट्‌टी, गोलमटोल खुशमिजाज रमा मेरी पड़ोसन ही नहीं अभिन्‍न मित्र भी थी। पति-पत्‍नी दिल्‍ली के सरकारी विद्यालयों में कार्यरत थे। अच्‍छा वेतन, सुविधा सम्‍पन्‍न घर, तीन-तीन आज्ञाकारी बुद्धिमान बेटे, बड़ा बेटा सौरभ एम्‍स में डाक्‍टर था, उसकी पत्‍नी भी डॉक्‍टर थीं पर माँ-बाप के साथ ही वे बड़े प्‍यार से रहते थे। दूसरा सौरव कम्‍प्‍यूटर में डिग्री लेकर सपरिवार अमेरिका चला गया था। तीसरा वैभव उस समय एम. बी.बी.एस. कर रहा था। ऐसा क्‍या घटा जो रमा को यूं उजाड़ गया। मैं अधिक देर रोक न सकी स्‍वयं को। रमा के पति कब छोड़ गए? यह भी जानना चाहा। मेरे प्रश्‍नों को सुन उसकी आँखें बरसने लगीं। फिर जो सुनाया, दिल दहल गया उसे सुनकर।
‘‘तुम जब दिल्‍ली छोड़कर आईं थीं तब तक सब ठीक-ठाक था। वैभव का डॉक्‍टरी पढ़ाई का तीसरा साल था। उसका अस्‍पताल में डायटिशियन से प्रेम का चक्‍कर चल गया। सुरंजना फ्रॉडकिस्‍म की लड़की थी। सीधे-सादे वैभव को गर्भवती हो जाने का झांसा देकर विवाह के लिये बाध्‍य किया। हमने बेटे की खुशी की खातिर बिना एक धेला लिये, बड़ी बहुओं की तरह गहने-कपड़े देकर उसे अपना लिया परन्‍तु उसकी साजिश और इरादे सिर्फ शादी तक ही सीमित नहीं थे।
उसने हमारी हँसती-खेलती गृहस्‍थी में कांटे वो दिये। वैभव को जली-कटी सुनाती, जेठ-जेठानी, सास-ससुर को नौकरों की तरह बरतती। अक्‍सर सुनाती रहती - ‘‘मेरा तो इस घर में दम घुटता है। भाभी तुम डॉक्‍टर हो कर यहाँ क्‍यों पड़ी हो?'' तीसरे दिन माँ के घर चल देती। वैभव साथ न जाता तो क्‍लेश करती।
सारे जेवर भी माँ के घर रख छोड़े थे। रोज-रोज की चख-चख से तंग होकर हमने वैभव को अलग मकान में रहने के लिए भेज दिया। वह दुःखी मन से चला तो गया पर सुरंजना फिर भी संतुष्‍ट नहीं हुई क्‍योंकि वैभव ने उसके कहे अनुसार हमसे सम्‍बन्‍ध नहीं तोड़ा और घर आना-जाना नहीं छोड़ा। इसी खींचातान में चार महीने बीत गए। उस दिन हमारे पोते मयंक का जन्‍म दिन था। बहुत आग्रह करने पर भी सुरंजना नहीं आई तो वैभव अकेला ही आया था। खाना परोसा जा रहा था कि वैभव का मोबाइल बज उठा वह बद्‌हवास सा खाना छोड़ कर चल दिया। बहुत पूछने पर चलते-चलते बोला-‘सुरंजना जल गई है।'
पहले तो पुलिस को वैभव और हमारे खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला पर बाद में सुरंजना के माता-पिता ने खूब पैसा खिलाया और न जाने कहाँ से सुरंजना के लिखे कई पत्र जिनमें सास-ससुर, जेठ-जेठानी की दहेज प्रताड़ना तथा पति को भड़काने की शिकायत वाले मिल गए। एक पत्र में तो यह भी लिखा बताया कि ‘यदि मेरी अस्‍वाभाविक मृत्‍यु हो जाये तो उसका जिम्‍मेदार मेरे पति व उसके परिवार को माना जाए। सो मुझे वैभव और उसके पापा को पकड़ कर जेल में डाल दिया।
सौरभ और उसकी पत्‍नी ने भी काफी दिन भूमिगत रह कर जान बचाई। यह सब किया था सुरंजना के माँ-बाप की पाप की कमाई ने। बाप आपूर्ति विभाग में कार्यरत था। अनाप-शनाप रिश्‍वत लेकर बड़ी सी कोठी बनाई थी। चार-चार बेटियाँ थीं।
हराम की कमाई से भ्रष्‍ट हुई माँ की भूख ने बेटियों को गलत धन्‍धे में लगा दिया। सुरंजना से बड़ी ने एक अधेड़ रईस से ब्‍याह रचाया उसको स्‍वर्ग भेज, माल-भत्‍ता समेट अब ठाठ से पुराना धन्‍धा चला रही थी। सुरंजना एक गरीब डॉक्‍टर पर मर मिटी अतः माँ-बहन उससे नाराज थीं।
सारी बातें तो वैभव को मकान मालकिन ने बताईं थीं क्‍योंकि उसी के फोन पर सुरंजना की माँ से वार्ता होती थी। सुरंजना के आत्‍महत्‍या करने से कोई एक घन्‍टे पूर्व भी सुरंजना की माँ का फोन आया था। वह बार-बार माँ से कह रही थी - ‘‘नहीं-नहीं मैं वैभव को नहीं छोड़ सकती वह बहुत अच्‍छा है। कभी न कभी तो मेरे कहने में चलेगा ही - छोडेगा ही अपने घरवालों को। नहीं! अब मुझे नहीं करना तुम्‍हारा धन्‍धा। नहीं चाहिए तुम्‍हारा पैसा! सम्‍बन्‍ध तोड़ दोगे? तोड़ दो........ये बातें मकान मालकिन ने पुलिस को भी बताइर्ं थीं पर किसी ने हमारी और उसकी नहीं सुनी। तीन साल तक मुकदमा चला और हम नर्क में सड़ते रहे। वैभव की पढ़ाई बींच में छूट गई! कैरियर के तीन अमूल्‍य वर्ष मिट्‌टी में मिल गये। उसके पापा उस अपमान और यंत्रणा को सह न सके। एक साल में ही मुक्‍त हो गए। जो अपराध हमने किया ही नहीं उसके दंड ने यह दशा तो करनी ही थी। वो तो गौरव अमेरिका में था उसके भेजे रुपयों से हम मुकदमा जीत कर बाहर आ गए। भगवान का शुक्र है कि वैभव फिर जीवन की खुशियों से नाता जोड़ रहा है। उसकी नियुक्‍ति पिछले साल यहीं के अस्‍पताल में हो गई और हम दिल्‍ली को उसकी कड़वी यादों के साथ अलविदा कह आए।
अविश्‍वसनीय - अकल्‍पनीय सी रमा की आपबीती सुन बहुत देर तक एक भी शब्‍द मेरे मुँह से न फूटा। मैं समझ ही नहीं पा रही थी क्‍या कह कर उस भद्र महिला को सान्‍त्‍वना दूँ जिसके सपनों को नहीं, यथार्थ को एक कुचाली, कुसंस्‍कारी परिवार ने अकारण ही तहस-नहस कर डाला। अपनी ही पुत्री को धन लिप्‍सा की भेंट चढ़ा निर्दोष लोगों के मान-सम्‍मान और सुख शान्‍ति को बारुद के हवाले कर दिया।
अनुपमा भीगी पलकें लिए विदा होने लगी। रमा ने आग्रह पूर्वक मुझे अपने साथ गाड़ी में बिठा लिया। वह प्रसन्‍न एवं संतुष्‍ट दिखाई दे रही थी। एक प्रश्‍न जो अनुपमा के विवाह का कार्ड देखते ही मन में कुलबुला रहा था, होठों पर आ ही गया - ‘‘रमा! एक बात है जो मेरी समझ में नहीं आई। अनुपमा का चयन वैभव जैसे सुंदर हृष्‍ट-पुष्‍ट सफल युवक के लिये! क्‍या कोई विवशता थी?''
‘‘तुम शायद अनुपमा की विकलांगता की बात कर रही हो। ऐसा हादसा किसी के भी साथ कभी भी हो सकता है। वंदना! विकलांगता से कहीं अधिक खतरनाक मानसिक विकलांगता की भयावहता को भोग चुकी हूँ मैं जिससे सुरंजना और उसका परिवार ग्रस्‍त था।
अनुपमा तो हीरा है। पांच-छः महीने पहले मैं बीमार हुई तो इसने मेरी सेवा करने में अस्‍पताल की नर्सों को भी पीछे छोड़ दिया। इसकी निस्‍वार्थ सेवा, मृदुल व्‍यवहार, मधुर मुस्‍कान ने मेरा मन जीत लिया। मानवीयता, सज्‍जनता एवं सदाशयता पर फिर से मेरा विश्‍वास कायम हो गया। सच पूछो तो अनुपमा वह आस्‍था बन कर हमारे जीवन में आई कि फिर से जीने की ललक जाग उठी। मैंने ममता से इस हीरे को मांग लिया। वैभव को भी मेरा चयन पसंद है वह तो वीतरागी ही हो गया था!''
यह बताते हुए रमा के अधरों पर मुस्‍कान खेल रही थी। मैंने भी राहत की सांस ली कि चलो कम से कम करुण कहानी का अन्‍त तो सुखद हुआ।
घर जाकर जब यह कहानी मैंने अपनी बहू को सुनाई तो वह चकित रह गई और बोल उठी - ‘‘अक्‍सर समाचार पत्रों में दहेज-प्रताड़ना के किस्‍से छपते रहते हैं जिनमें पति तथा उसके परिवार को दोषी मान दंड दिये जाने की बात पढ़कर हम न्‍याय पर संतोष करते हैं। कौन जाने उन कहानियों के पीछे क्‍या सच्‍चाई होती है?''
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‘पुष्‍पांजलि' 27-ए. से. 1,
चिरंजीव विहार, गाजियाबाद 201002

(15) वो जल रही थी

अनिल सक्सेना चौधरी

उस दिन रात के ग्‍यारह ही बजे थे, लेकिन वातावरण में इस कदर अंधेरा छाया हुआ था कि समय का कुछ भी अन्‍दाज नहीं लग पा रहा था। चारों तरफ कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। बादल जोरों से गरज रहे थे। हवा के तेज झोकों के कारण मेरे कमरे की खिड़की के पट बार-बार अजीब-सी ध्‍वनि पैदा कर देते थे, मानों इस शान्‍तिमय माहौल को एकदम से खत्‍म कर देना चाह रहे हों। वातावरण भी कुछ ठण्‍डा सा हो गया था।
मैंने शरद को आवाज दी। वह बरामदे में बैठा माउथ आर्गन बजा रहा था। उसने माउथ आर्गन मेज पर रख दिया और दौड़कर मेरे पास आकर बैठ गया। मैंने स्‍टोव जलाया और दो कप चाय कर ली। हम लोग कुर्सियों पर बैठे चाय पी रहे थे। इस शहर में रहते-रहते पूरे दो वर्ष हो चले और अब सुबह की गाड़ी से वापस जयपुर जाना है। तैयारी पूरी तरह हो चुकी थी। मैं थककर चकनाचूर हो गया था, इसलिए ज्‍यादा देर तक जागना ठीक नहीं समझा और लाइट आफ करके हम लोग सो गये।
अभी नींद लगी ही थी कि अचानक एक ‘चीख' सुनाई दी। मैं डरकर जाग गया और उठकर पलंग पर बैठ गया। मैंने लाइट आन की और खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। बाहर तो कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था तो फिर ये चीख कहाँ से आई? इस समय चीख बन्‍द हो चुकी थी। मैंने शरद को जगाया और मैं बरामदे में आ गया। बरामदे तक पहुँचा ही था कि फिर एक बार कोई चीखा और.....बचाओ.....बचाओ.......की आवाज से वातावरण गूँजने लगा। यह आवाज किसी औरत की थी। मैं शरद के साथ कमरे से बाहर आ गया, जहाँ से यह आवाज आ रही थी। मैंने दरवाजा खटखटाते हुए पूछा- ‘‘क्‍या बात है? दरवाजा खोलो।'' लेकिन किसी ने दवाजा नहीं खोला।
तभी अंदर से फिर किसी महिला की आवाज आई- ‘‘मुझे बचा लो वरना ये मुझे जान से मार डालेंगे।''
मैं सारी स्‍थिति समझ गया। मैंने दरवाजे को बार-बार धक्‍का देकर तोड़ दिया और अंदर पहुँच गया। अन्‍दर का दृश्‍य बहुत ही दर्दनाक था। जिसे देखकर मेरी आँखें विस्‍मय से फटी रह गईं।
इंजीनियर साहब की नवविवाहिता पत्‍नी आग की लपटों में जल रही थी और इंजीनियर साहब अपने माँ-बाप के साथ उसे घेरे हुए खड़े थे। दहेज के तीनों भूखे भेड़िये मुझे अन्‍दर आता देखकर भागे और छिपने की कोशिश करने लगे। मैंने जल्‍दी से उस बेचारी के शरीर पर फैली हुई आग की लपटों को बुझाया लेकिन तब तक वह जमीन पर गिर चुकी थी और बुरी तरह कराह रही थी।
उसका फूल-सा कोमल शरीर आग से बुरी तरह जल कर झुलस गया था लेकिन चेहरे पर आग नहीं पहुँच पाई थी। उसके माथे पर चोट के निशान थे। यह निशान इस बात का संकेत दे रहे थे कि उसे बुरी तरह पीटा गया है और फिर जला दिया गया।
उसने अपनी अश्रुपूरित आँखों से मेरी ओर देखा। उसके दोनों हाथ जुड गये, लड़खड़ाती आवाज में कुछ शब्‍द उसके मुख से निकले- ‘‘भइया मुझे बचा लो। मेरा कोई भी नहीं है, ये लोग मुझे जान से मारना चाहते हैं।''
मै उस बहन की आँखों से टपकते आँसुओं को नहीं देख सका और उसे कंधे पर डालकर तेजी से बाहर की ओर चल दिया। पड़ोस के लोग मिट्‌टी के पुतले बने तमाशा देख रहे थे। कोई भी आगे बढ़कर नहीं आया। हम जब सड़क से होकर गुजरने लगे तो लोग हमें देखकर अपने-अपने घरों में घुस गये और हमारे जाते ही घर से निकल कर तमाशा देखने लगे।
अभी मैं बीस-पच्‍चीस कदम ही चला था कि एक महानुभाव जोर से चिल्‍लाकर बोले-‘‘अनिल! तुम इस केस में मत पड़ो, वरना पुलिस तुमसे भी बयान लेगी। बेमतलब में परेशानी में पड़ जाओगे। ये दहेज का मामला है।''
लेकिन मैंने किसी की एक न सुनी और एक टैक्‍सी में उसे लेकर अस्‍पताल चल दिया। मेरे साथ सिर्फ शरद ही था जिससे मेरी हिम्‍मत बढ़ गयी थी। अस्‍पताल पहुँच कर हम सीधे इमरजेंसी वार्ड में गए। रात गहरा चुकी थी। इमरजेंसी वार्ड में एक सफेद दाढ़ी वाला बूढ़ा चपरासी नजर आ रहा था। बूढ़ा व्‍यावहारिक और तहजीब वाला मालूम पड़ रहा था। बूढ़ा हमारी तरफ आया और बड़ी उदारता से देखकर बोला-‘‘बेटा, क्‍या हुआ इसे?''
मैंने उस बूढ़े को जल्‍दी से सारा हाल बताया। बूढ़ा कुछ दुखी होकर बोला-‘इस अस्‍पताल का तो यही हाल है। डॉ. जैन. मैडम के साथ चाय पीने गये हैं और नर्स स्‍वेटर बुनते-बुनते थक गई थी इसलिए बेचारी जरा सो गई है। रुको अभी जगाता हूँ। तुम तब तक डॉ. लाहा के पास चले जाओ, निहायत ही शरीफ इंसान हैं। बड़े दयालु हैं। इस समय तुम्‍हारी जरूर मदद करेंगे। लेकिन उनकी ड्‌यूटी दूसरे वार्ड में है।''
मैं डॉ. लाहा के पास गया और उन्‍हें बुलाकर ले आया। डॉ. लाहा ने दर्द से कराहती उस अभागिन बहन को भर्ती कर लिया और इलाज शुरु कर दिया।
ग्‍लूकोज चढ़ रहा था और लगभग एक घंटा बीत चुका था। उसका बदन फूल गया था। अचानक वह मुझे भइया-भइया कहकर पुकारने लगी। मैं उसके सिरहाने जाकर बैठ गया। वह अटकते स्‍वर में कहने लगी- ‘‘मुझे अपनों ने ही जलाया है और परायों ने बचाना चाहा है। कितनी विचित्र है ये दुनिया? लेकिन अब मैं बच नहीं सकूँगी । मैं अब जा रही हूँ हो सका तो अगले जन्‍म में तुम्‍हारी बहन बनकर मिलूँगी। मैं तुम्‍हारे जैसे भाई का प्रेम पाकर आज शान्‍ति महसूस कर रही हूँ। अब मैं चैन से मर सकूँगी।'' इतना कहते-कहते वह रो पड़ी। देखते ही देखते उसकी आँखें चढ़ने लगीं, चेहरे पर हल्‍की-सी मुस्‍कराहट बिखर गई और उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली। उसने मेरे हाथों को चूमकर माथे से लगाया और उसकी गर्दन तकिये पर लुढ़क गई। उसका शरीर निर्जीव हो गया था।
मुझसे यह सब बर्दाश्‍त नहीं हो रहा था। मेरी आँखें आँसुओं को नहीं रोक सकीं। देखते ही देखते पूरे वार्ड में खामोशी छा गई। वातारवण शान्‍त हो गया। सभी की आँखों से आँसू बह रहे थे।
इंजीनियर साहब का शहर के सभी प्रतिष्‍ठित लोगों से अच्‍छा सम्‍बन्‍ध था। इसलिए उनके चेहरे पर जरा-सी भी शिकन नहीं थी। पुलिस वालों ने भी ले-देकर मामला रफा-दफा कर दिया था।
पड़ोस में चर्चा थी कि अनाथ थी। माँ-बाप बचपन में ही मर गए थे। कोई सगा भाई भी नहीं था। बड़ी बहन ने जैसे-तैसे इसकी शादी की थी। जब उस बेचारी को पता चलेगा कि उसकी छोटी बहन अब इस दुनिया में नहीं है तो उसके दिल पर क्‍या बीतेगी? उसे क्‍या पता था कि उसकी बहन दहेज की आग में जल जायेगी। सब लोग कह रहे थे कि सास-ससुर और पति ने ही उसे जलाया है।' लेकिन गवाही देने के लिए एक भी तैयार नहीं था।
शहर के सभी अखबारों में खबर छपी थी ‘‘गैस के चूल्‍हे से जलकर एक नव-विवाहिता की मृत्‍यु.......।
मैंने शरद से कहा-‘‘समाचार पत्र समाज का दर्पण होता है क्‍या यह दर्पण सही बोल रहा है? नहीं, यह अखबार झूठ बोल रहा है, क्‍योंकि इंजीनियर साहब एक प्रतिष्‍ठित परिवार के थे।''
मैं बहुत उदास हो चुका था। हम लोग तीन दिन लेट हो चुके थे और शायद इस घटना के साथ ही हमें इस शहर से विदा होना था। मैं शरद के साथ कमरे में आया और सामान ताँगे में लादकर स्‍टेशन पहुँच गया। शरद ने टिकट खरीद लिये थे। हम दोनों टे्रन में बैठ लिए।
मेरी दृष्‍टि आकाश में छाये उन बादलों की ओर थी जो न जाने किस तरफ बड़ी तेजी से चले जा रहे थे। गाड़ी धीरे-धीरे चल दी। हम अब शहर से दूर होते जा रहे थे। सब कुछ तो समाप्‍त हो गया था, कुछ भी शेष न रहा। उस अभागिन बहन की पुकार मेरे कानों में गूँज रही थी।
गाड़ी धीमी हो गई है, शायद कोई स्‍टेशन आ गया है। बाहर कोहरा छाया हुआ है। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है।
बाहर ही क्‍यों? इस दुनिया में ही कोहरा छाया हुआ है समाज में कुहरा और सघन हो गया है। दहेज के चन्‍द ठीकरों ने आदमी को आदमी नहीं रहने दिया। उसे भेड़िया बना डाला है। और सारे समाज को संवेदनहीन लुंज-पुंज मानव पिण्‍ड मात्र बना कर रख दिया है। इतना सब होता रहा और एक भी व्‍यक्‍ति हिम्‍मत के साथ विरोध करने के लिए बाहर नहीं निकल कर आया।
क्‍या ये दुनिया अब रहने के काबिल बची है? क्‍या मानवीय संवेदना को झकझोर कर जगाने का समय बीत गया है?
शायद हाँ............. शायद नहीं..........।

(16) बेटे की खुशी

राजेन्‍द्र परदेशी

शकुन्‍तला की शादी में दशरथ मिसिर को बहुत कुछ झेलना पड़ा था। वह सब कुछ भूल गये थे। याद रह गये थे तो सिर्फ बीस हजार रुपये, जो उन्‍होंने दहेज में दिये थे। वे इस आशा में थे कि पोते की शादी में दहेज लेंगे ही, शादी भी धूम-धाम से करेंगे। एक ही तो पोता है। रामपुर से हरिभजन तिवारी अपनी लड़की की शादी के लिए जब उनसे मिलने आये तो बात करने को कौन कहे, दशरथ मिसिर ने शादी की चर्चा करने से इनकार कर दिया। उन्‍हें पता था कि हरिभजन तिवारी की आर्थिक स्‍थिति वैसे ही खराब है, शादी में खर्च ही क्‍या करेंगे।
लेकिन उनका सोचा हुआ सब उल्‍टा हो गया। उन्‍होंने सुना कि उनके बेटे कैलाश ने हरिभजन तिवारी के यहाँ प्रकाश की शादी तक कर डाली, वह भी बिना दहेज के। उनको कैलाश पर बहुत क्रोध आया। उसने तो सारा सपना ही बरबाद कर दिया था। दशरथ मिसिर का कहना था कि जो जितना ज्‍यादा दहेज पाता है, वह उतना ही बड़ा आदमी होता है कैलाश के फैसले से उनकी योजना धरी की धरी रह गयी। उन्‍होंने पत्‍नी को आवाज दी-‘‘कैलाश की माँ ओ कैलाश की माँ।''
‘‘क्‍या है, जो इतनी जोर से बोल रहे हो?''
‘‘कैलाश का दिमाग तो नहीं खराब हो गया है।''
दशरथ मिसिर की पत्‍नी रमादेवी यह जानती थीं कि मिसिर यह सब क्‍यों कह रहे हैं। फिर भी अनजान बनते हुए बोलीं-‘‘क्‍यों, क्‍या हुआ?''
‘‘उसने रामपुर के तिवारी हरिभजन के यहाँ प्रकाश की शादी तय कर ली।'' क्रोध के कारण दशरथ मिसिर के मुँह से शब्‍द मुश्‍किल से निकल रहे थे। ‘‘वह भी बिना दहेज के।''
रमादेवी जानती थीं कि कैलाश ने जो निर्णय ले लिया है, उसमें वह कोई भी परिवर्तन नहीं करेगा। उससे कुछ कहना बेकार है। अच्‍छा होगा, अपने पति को ही समझाया जाय, जिससे परिवार में टकराव की स्‍थिति पैदा न हो। वे बोलीं-‘‘उसका लड़का है। वह जहाँ चाहे, उसकी शादी करे। आप क्‍यों इन सब मामलों में पड़ते हैं। आपको तो अब भगवान का भजन करना चाहिए।''
‘‘वह घर में आग लगाये और मैं चुपचाप देखता रहूँ।'' मिसिर ने अपनी खीझ उतारी।
‘‘आग कौन लगा रहा है जो आप इतने परेशान हैं।'' पत्‍नी के विचारों का उनके विचारों से मेल नहीं हुआ। दशरथ मिसिर बोले, ‘‘यह आग लगाना नहीं तो और क्‍या है। मानपुर के गया तिवारी पन्‍द्रह हजार नगद दे रहे थे, नाच-बाजे का अलग से। लेकिन कहा कि बीस हजार नगद से एक पैसा कम नहीं लेंगे।''
पिता और पुत्र के विचारों में काफी विरोधाभास था। रमादेवी इसका अनुभव कर रही थी। समस्‍या का समाधान कहीं दीख नहीं रहा था। पति को झुंझलाकर बोलीं-‘‘आप पोते की शादी तय कर रहे थे कि उसे जानवरों की तरह बेच रहे थे?''
मिसिर को गुस्‍सा आया। वे बोले, ‘‘तुम्‍हारा भी दिमाग तो नहीं खराब हो गया है?''
‘‘क्‍यों?''
‘‘ऐसी बातें जो कर रही हो।''
रमादेवी को दहेज से कुछ लेना-देना नहीं था। वह तो मात्र यही चाहती थीं कि परिवार में कलह न हो। कैलाश के बेटे की शादी में वे दहेज लेने के पक्ष में नहीं थीं। परन्‍तु दशरथ मिसिर बिना दहेज की शादी की बात सोच भी नहीं सकते थे। रमादेवी को खीझ आना स्‍वाभाविक था। पति पर अधिकार जताते हुए बोली, ‘‘अभी उस दिन दूसरों को क्‍यों कोस रहे थे जहाँ भी जाओ, लोग दहेज के बिना बात नहीं करते।''
‘‘तो किसी भिखमंगे के यहाँ शादी कर लूं?''
‘‘इतनी अच्‍छी लड़की दे रहे हैं, और क्‍या दें?''
‘‘यह तो सभी करते हैं। दहेज नहीं लेगें तो शादी में खर्चा-वर्चा कहाँ से होगा?
नाच-बाजा, धूम-धाम करनी होती है वह सब कैसे होगा?''
रमादेवी ने अनुभव किया कि दशरथ मिसिर अपने सामने किसी की न सुनेंगे। इससे अच्‍छा है कि यहाँ से हट लिया जाय। यही सोचकर काम का बहाना बनाकर वे चली गयीं।
माँ और पिता के बींच चल रही वार्ता कैलाश ने सुन ली थी। वह बगल के कमरे में लेटा था। माँ को जाते हुए देखकर वह कमरे से बाहर आया और पिता से बोला-‘‘शादी के अवसर पर अनावश्‍यक खर्च करने की क्‍या जरुरत है?''
अचानक कैलाश को सामने पाकर दशरथ मिसिर बोले-‘‘कल तुम यह भी कहोगे कि गहने न बनवाये जायें।''
‘‘यह तो मैंने ही निश्‍चय कर लिया है। वैसे आजकल गहने पहनता ही कौन है?'' कैलाश की बातों से दशरथ मिसिर को उसकी नादानी की झलक मिल रही थी।
बोले-‘‘गांव के लोग क्‍या कहेंगे, उसके बारे में तुमने कभी सोचा है?''
कैलाश बोला-‘‘दूसरों को दिखाने के लिए अपनों को उजाड़ दिया जाए, यह कहाँ की बुद्धिमानी है।''
‘‘अपना कौन?''
‘‘लड़की वाले, और कौन?''
‘‘हमने क्‍या सबका जिम्‍मा ले रक्‍खा है।' कैलाश का दिमाग कुछ गरम हो गया। आवेश में बोला-‘‘वह दिन आप क्‍येां भूल गये, जब शकुन्‍तला की शादी के लिए आपको किस-किस का मुँह देखना पड़ा था। कहाँ-कहाँ नहीं भटकना पड़ा था।''
‘‘इससे क्‍या? हमारी लड़की थी। हमें तो यह करना ही था।'' मिसिर झुंझलाकर बोले-‘‘किसने मेरे साथ रियायत की थी। और तेा और, पुराने रिश्‍तेदारों ने भी ठीक से बात नहीं की थी। अगर बाप-दादा की जमीन न होती तो पता नहीं क्‍या होता?''
कैलाश बोला-‘‘किसी के पास साधन न हों तो वह अपनी लड़की को जीवन भर कुंवारी रक्‍खें।''
पुत्र के तर्क मिसिर के मन को छू नहीं पा रहे थे। परम्‍पराओं से चली आ रही मान्‍यता को कैलाश के द्वारा ध्‍वंस करना उन्‍हें अच्‍छा नहीं लग रहा था। उधर कैलाश भी अपने निर्णय से टस-से-मस होने को तैयार न था। ऐसी स्‍थिति में टकराव स्‍वाभाविक था। कैलाश बोला-‘‘कितने लोग तो इसी कारण कोई सही निर्णय नहीं कर पाते कि लोग क्‍यों कहेंगे।''
दशरथ मिसिर अनुभवी थे। उन्‍होंने कैलाश की बातों से अनुमान लगा लिया था कि वह अपनी बात से एक कदम पीछे नहीं हटेगा। ऐसी स्‍थिति में अच्‍छा यही है कि बेटे की खुशी के लिए अपने मन को ही समय के अनुरूप ढाल दिया जाए। यही सोचकर बोले-‘‘कैलाश! बेटे की शादी है जैसा तू चाहे, कर........हमने भी बेटे की शादी अपने मन से की थी।'' उनके चेहरे पर तनाव नहीं, सहज मुस्‍कान थी।
कैलाश को विश्‍वास नहीं था कि बापू उसके पक्ष में इतनी आसानी से अपना निर्णय दे देंगे । वह खुश था, बेहद खुश था।
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बी-1118,
इन्‍दिरानगर,
लखनऊ-226016 (उ.प्र.)

 

(17) प्रश्‍न से परे

विलास विहारी


बटेसर को इन दिनों काफी सोच-फिकर हो गई है। उसे बस से ज्‍यादा अपनी बेटी किरमिनियां की चिन्‍ता है। किरमिनियां इस साल सोलह पार कर गई। उसकी शादी अब बिल्‍कुल जरुरी है। असल में उसने पिछले साल ही उसकी शादी करने का फैसला कर लिया था लेकिन वह करे तो क्‍या करे! खेतों में उपज नहीं होती, एक चुटकी भी धान घर में नहीं आता है। थोड़ी-बहुत रब्‍बी भले हो जाती है, लेकिन उससे क्‍या होगा! सालों भर क्‍या सत्तू खा कर कोई जी सकता है। और फिर मुखिया का तगादा! उस का भी तो कुछ न कुछ धारता है बटेसर। रोज-रोज मुन्‍शी आकर उसे धमका जाता है। कहता है, टाका देने का दम नहीं है तो लिखा दो रुक्‍का। तुम्‍हारा कोई नौकर नहीं जो रोज-रोज तगादा करता फिरुं। बटेसर की बचे तो इस मुन्‍शी का गट्‌टा पकड़ कर उसे दो लाठी लगाए कि हिसखे (आदत) छुट जाए दुष्‍ट की। लेकिन बुढ़ारी पर वह क्‍या करे। वह समांग नीं इसलिए सबका सहना पड़ता है। कुछ पुश्‍तैनी जमीन थी तो दोनों शाम भरपेट खाना मिल जाता था। आधी जमीन बप्‍पा कर मरा है। अब अगर वह बाकी जमीन भी बेच दे तो सत्तू भी खाने को नहीं मिल पाएगा। मुखिया की नजर तो इस जमीन पर हरदम रहती है कि सूरभरना जैसे ही लगे, बस जमीन हड़पो। क्‍या खैरात में आई है ऐसी-सोने-सी जमीन, हूँ। मुखिया के मन को खूब जानता है बटेसर। वह भला कभी देगा अपनी जमीन को सूर-भरना में! कभी नहीं, इसीलिए तो जब भी कभी मुखिया सूरभरना की बात बोलता है, बटेसर उसे टरकाता है।
लेकिन यह कब तक चलेगा! कितने दिन और टरकाएगा वह मुखिया को! एक-न-एक दिन तो उसे चुकाना ही पड़ेगा, बप्‍पा का लिया हुआ कर्ज जो धारता है वह!
एक तरह से मुन्‍शी ठीक ही बोलता है, रुक्‍का लिख देने से तगादा तो नहीं होगा। कम से कम दो-तीन साल तक तो मुखिया को कुछ भी बोलने का मौका नहीं मिलेगा न! इसी बींच किरमिनियां की शादी हो जाएगी। निश्‍चिन्‍त हो जाएगा वह। उसकी एकमात्र सन्‍तान किरमिनियां को भी अगर अच्‍छा घर-वर नहीं मिले तो बटेसर की जिन्‍दगी ही बिरथा!
कभी-कभी तो वह सोचता है, जो कुछ भी थोड़ी-बहुत जमीन-जायदाद है.........बाड़ी-झाड़ी, खेत-खलिहान, यह घर-मकान और डगर-बथान, सब लिख दे किरमिनियां के नाम। जमाई को घर जमाई बना। बेटी-जमाई दोनों नजरों के सामने रहेंगे। हम लोगों का क्‍या ठिकाना, कब टन बोल दें! लिे कन बटसे र जानता है ऐसे  जमाइ  निकम्‍मा होता  है घर बठै  खाएगा और मस्‍ती करता फिरेगा! यह उसे पसन्‍द नहीं। फिर किरमिनियां को वह अपने भरोसे ही क्‍यों! वह तो उसे ऐसे घर में देना चाहता है जहाँ वह राज भोगे।
बिसनपुर के बुलाकी चौधरी का पोता उसकी नजर में है। यह रिश्‍ता अगर हो जाय तो किरमिनियां का भाग खुल जाए। लेकिन बुलाकी चौधरी उसके घर में रिश्‍ता करेगा? बीस बीघे नम्‍बर एक धनहर जमीन। पायली भर मारा हो जाए लेकिन उस बिस-बिघिया में कभी भी बीघा पीछे पचीस मन धान से कम न हुआ। दोगाही जमीन है.......एक तरफ पोखर और दूसरी तरफ नद्‌दी। काहे को खेत कभी सूखेगा! तब न, उसके घर में सालों भर चावल मौजूद रहता है और बथान पर गाय-भैंसें जुगाली करती नजर आती हैं। दाय-नौड़ी और नौकर-चाकर बरवक्‍त सेवा-बरदास के लिए लगे रहते हैं। धन भाग! ऐसे सुख सबको भगवान दे! बप्‍पा अगर आज जिन्‍दा रहता तो यह रिश्‍ता हो जाता। उसकी बुलाकी चौधरी से बड़ी यारी थी। बटेसर को तो याद है, बचपन में उसने देखा है.......बुलाकी चौधरी कितनी बार उसके दरवाजे पर आया है। उसने उसे पानी भी पिलाया है। अब तो वह पहचानेगा भी नहीं। बप्‍पा रहता तो यह रिश्‍ता बिना किसी लेन-देन के तय हो जाता, लेकिन बप्‍पा के नाम पर अब कहने से ही क्‍या फायदा! जो कुछ करना होगा अब तो उसे ही करना है। अपने ही भरोसे जीना है!
बटेसर जलखै खा कर बड़ी सोटते हुए आंगन से द्वार पर आया। दो बार डकारते उसने बाएं हाथ से अपना पेट सहलाया और फिर अपने आप भनभनाया. .....साला, सत्तू खाओ तो ऐसे ही डकारें आएंगी, बिलकुल नमकीन-नमकीन।
घी-दूध, चूड़ा-दही और दाल-भात की डकारें अलग होती हैं कितनी बढ़िया! इच्‍छा होती है कि हरदम डकारता ही रहे, लेकिन बढ़िया खान-पान तो अब नसीब नहीं। रोपो धान तो होती है रब्‍बी, तो फिर सालों भर सत्तू नहीं खाओगे तो क्‍या तुम्‍हारे लिए चूड़ा-दही आसमान से बरसेंगे।
उसने बीड़ी में जोर से दम लगाया। बीड़ी फुसफुस बोलती रही तो बटेसर फिर बड़बड़ाया, दुष्‍ट आजकल सभ्‍भे बैमान बन गए हैं। दूसरों का जितना हड़प सको, हड़पो। बीड़ी बनाने वाला तक बिना मसाले की बीड़ी बनाएगा। खाली पत्ता लेपेटा और तागे से बांध दिया..........बस हो गई बीड़ी। चोर कहीं का!
उस ने ताख पर से खोज कर एक अच्‍छी-सी बीड़ी निकाली और पतली बीड़ी की ठूंठ से उसे सुलगाया। जोर से लम्‍बा कश खींचते ही इस बार वह खांसने लगा। पूस में जरा-सी सर्दी क्‍या हुई कि कफ और खांसी ने जैसे जकड़ लिया है। जाने का नाम ही नहीं लेती, इतनी जिद्‌दी है।
उमर भी तो हो गई है अब बटेसर की। बूढ़ा हो चला है। बप्‍पा तो साठ बरस ही जी ले, यही बहुत है। इसी बीच किरमिनियां को ब्‍याहना ही होगा। उसे फिर किरमिनियां का सोच होने लगा। बिना उसे ब्‍याहे भला वह कैसे मरेगा! अच्‍छे घर में बेटी चली जाए तो वह चैन से मर भी सके। इस बार जैसे हो, यह काम करना ही पडे़गा।
किरमिनियां की माँ गरजती हुई बटेसर के पास आ धमकी...........‘‘का हो, पेट भर गया तो आकर निश्‍चिन्‍त हो गए! तुम को तो बेटी की कोई फिकिर नहीं है, कैसे बाप हो! भला जिसके घर में बिन बिहाई जवान बेटी पड़ी है वह इस तरह निफिकिर हो कर बीड़ी सोटेगा!''
‘‘मैं निश्‍चिंत नहीं बैठा हूँ किरमिनियां की माँ। मैं भी अभी यही सब सोच रहा था।''
‘‘तुमको तो सोचते-सोचते सालों बीत गए। अब दिन कहाँ हैं! एक ही लगन तो है। फिर दो सालों तक अतिचार। जाओ, आज ही जाओ, कुछ करो। ऐसे बैठे जाने से कुछ नहीं होगा। कहते थे, बुलाकी चौधरी के पास जाओगे, तो जाओ न आज उसी के घर। पूछ कर देखो तो सही। कहीं जाओगे-आओगे नहीं तो लोग तुम्‍हारे दरवाजे पर जमाई ला कर बांध तो नहीं जाएंगे।''
‘‘किरमिनियां की माँ, कैसे बात करती है तू! बेटी की कितनी फिकिर होती है वह बाप ही जानता है। तुझको क्‍या, घर में बैठी रहती है, आगे-पीछे, अच्‍छा-बुरा तो मुझे ही देखना पड़ता है न! बुलाकी चौधरी इतना बड़ा गृहस्‍थ है, भला वह क्‍यों अपने पोते की शादी मेरे घर करने लगा!''
‘‘तुम तो केवल अपनी ही कहोगे। कुछ करोगे-धरोगे नहीं। बुलाकी चौधरी के घर एक बार जा कर देखो। बप्‍पा का नाम बोलोगे तो मुझे उम्‍मीद है वह मान जाएगा। बेटी का वर खोजते-खोजते लोगों के जूतों के तलवे घिस जाते हैं और तुम इस द्वार पर से उतरने का नाम ही नहीं लेते। मैं किरमिनियां के हाथों तुम्‍हारा कुरता और गमछा भेजती हूँ, चले जाओ चौधरी के यहाँ, संझा तक लौट आना,'' किरमिनियां की माँ बकती हुई चली गई।
किरमिनियां की माँ ठीक ही कहती है, बटेसर फिर विचारने लगा। उस दिन पुरोहित बाबा बोल गए थे, बस एक ही लगन है अब इस बार। फिर दो वर्षों तक अतिचार। एक बार बुलाकी चौधरी के दरवाजे पर वह हो ही आए। कहीं रिश्‍ता हो जाए!
कुरता, मुडे़ठा और गमछा रखकर जब किरमिनियां द्वार की देहरी उतरने लगी तब बटैसर उसे देखता रह गया। उसे लगा जैसे वह अपनी बेटी को बहुत दिनों के बाद देख रहा है। सचमुच कितनी सयानी हो गई है किरमिनियां! आज जिस तरह भी होगा, बटेसर चौधरी से बात पक्‍की करके ही लौटेगा। वह अपना कुरता पहनने लगा। खादी का कुरता देा जगहों से फट चुका था। किरमिनियां ने उस पर पैबन्‍द लगा दिए थे। मुड़ेठे को बटेसर ने सिर पर बांधा और गमछा कन्‍धे पर रख लिया। चमरखानी जूते कोने में पड़े थे। दोनों जूतों को दाहिने पैर के अंगूठे से जमीन पर पटक-पटक कर उसने झाड़ा और हाथ में लाठी लेकर वह चल पड़ा। जाने के समय वह किरमिनियां को गरज कर कहना नहीं भूला वह विशनपुर जा रहा है संझा तक लौट आएगा।
सड़कों पर धूल जमी थी। फगुवा बीत चुका था। दूर खेतों में किसी चरवाहे की चैती धुन सुनाई पड़ रही थी। बटेसर ने अपने खेतों की ओर नजरें की। रबी पकनी शुरु हो गई है। बैहार में कटनी हो रही है। वह भी कल से अपनी रब्‍बी काटना शुरु कर देगा। ज्‍यादा पकने से बूंट की ढेड़ियां टूट कर झड़ जाती हैं। गांव का चरवाहा, गैना हर बथान से मवेशियों को खोल कर मैदान में चराने के लिए ले जा रहा था। मवेशियों के खुरों से धूल का गुब्‍बार उठा और उसमें बटेसर के खेत छिप गए।
उसे गुस्‍सा आ गया। अभी ही इस छोकरे को माल-जाल खोल कर ले जाना था। दोपहर हो जाने को है और अब यह जानवरों को चराने ले जा रहा है। भला क्‍या चरेंगे ये! खाली पोखर से पानी पिला कर यह छोकरा वापस ले जाएगा उन्‍हें यह गैना आजकल बड़ा कामचोर हो गया है दिन भर गुल्‍ली खेलता फिरेगा। गाय-बैलों के झुण्‍ड सड़क पार कर मैदान में चले गए। बटेसर तनिक रुक गया। धूल का गुब्‍बार हट जाए तो फिर वह आगे बढ़े। तभी सामने से डाकिया आता दिखलाई दिया। डाकिए ने बटेसर को देखते ही चिटि्‌ठयों में से एक पोस्‍टकार्ड निकाला और उसको बोला..........‘‘तुम्‍हारी चिट्‌ठी है, बटेसर भाय!''
चिट्‌ठी! यह चिट्‌ठी-पत्री कौन लिखने लगा बटेसर को! हाँ, पहली शादी हुई थी तो सावित्री के एक-दो पोस्‍टकार्ड आए थे। वह थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना जानती थी, लेकिन उससे तो रिश्‍ता टूटे सत्रह साल बीते। अब वह पोस्‍टकार्ड क्‍यों लिखने लगी! और भला उस हरजाई का पोस्‍टकार्ड बटेसर लेगा ही क्‍यों! डाकिए ने पोस्‍टाकर्ड बटेसर की ओर बढ़ाया तो बटेसर पूछ बैठा, ‘‘कहाँ से आया है पोस्‍टकार्ड? किस ने लिखा है गैवी भाई?''
‘‘तुम तो पढ़ना जानते हो। खुद ही पढ़ लो, बटैसर भाय। मुझे देखो न कितनी चिटि्‌ठयां बांटनी हैं। आज एक ही दिन कई गांवों के बिट पड़ गए हैं।'' गैवी डाकिया आगे बढ़ गया और बटेसर पोस्‍टकार्ड को ध्‍यानपूर्वक देखने लगा। टेढ़े-मेढ़े अक्षर, नाम तो उसी का लिखा है........बटेसर मड़र, गांव पकरा। बिल्‍कुल ठीक? किस ने भेजा है पोस्‍टकार्ड!
वह अक्षरों को जोड़-जोड़ कर पढ़ने लगा, लेकिन धूप में पोस्‍टकार्ड पर लिखे अक्षर चमकने लगे और वह पढ़ने में जब असमर्थ हो गया तब सड़क के किनारे पेड़ की छाया में खड़ा होकर अक्षरों को मिलाने लगा। एक-एक अक्षर पढ़ता और उसके चेहरे पर विभिन्‍न भाव उभरने लगते। उसकी आँखें लाल हो गइर्ं और नथुने फड़कने लगे हूँ, कुतिया, तो एक पोस्‍टाकार्ड लिखा है उसकी हरजाई सावित्री ने! कैसे हिम्‍मत हुई उसे यह चिट्‌ठी लिखने की उससे अब उसको क्‍या लेना-देना! सत्रह वर्ष पहले ही उससे उसका सब नाता-रिश्‍ता टूट चुका है। उसकी करनी ही ऐसी हुई कि बटेसर को उस से नाता तोड़ना पड़ा। बनी थी कभी उसकी बहू। की थी कभी शादी उससे। सुख से रखता भी उसे बटेसर। लेकिन गोबरबिछनी कभी कोहबर में रही है भला! कुतिया का कहीं एक हंडी से पेट भरा है! बिना सात हंडिये चाटें कभी चैन मिला है उसे। सावित्री भी तो कुतिया की ही जात निकली।
लिखती है, तुम्‍हीं मेरे देवता हो.....तुम्‍हीं मेरे पित्तर हो, तुम्‍हीं मेरे गोसांय! हूँ, सतरह बरस पहले यह नहीं सूझता था। अब याद आया है अपना देवता सांय! वह भला बने उस हरजाई-छिनार औरत का सांय! उसका खानदान कितना ऊँचा! कितना अज्‍जतदार! बप्‍पा, जगेसर मड़र उकस बेटा बटेसर मड़र। भला उसकी बराबरी क्‍या! यह तो परझरका मुखिया ही था जिसने बप्‍पा को धोखा देकर सावित्री से उसका व्‍याह करवा दिया था। बप्‍पा तो सीधा-साधा आदमी, बिल्‍कुल गौ। उसको क्‍या मालूम सावित्री का चरित्तर।
बहुत दिन हुए, भूल गया है बटेसर सावित्री को। उसको छोड़े हुए पूरे सतरह वर्ष बीत गए। अब उसके कहने से ही क्‍या उसका वह सांय बन जाएगा! लिखती है, जड़ैया बोखार है। आखिरी वक्‍त आ गया है। नहीं बचेगी। एक बार उसको देखना चाहती है। अपने पाप का पराछित कर लेगी।
जड़ैया बोखार नहीं आएगा तो क्‍या आएगा तुम्‍हें! और जाओ सात मरदों की खटिया पर। बच कर ही कौन-सा उजागर करोगी! पाप का पराछित भला तुम को इस जिन्‍दगी में कभी मिलने वाला है! उसे क्‍या और कोई काम नहीं है जो वह जाए उसे देखने को, जिसकी छैयां तक से हड्‌डी बिसा जाए।
बटेसर ने पोस्‍टकार्ड को घृणा से एक बार देखा और उसके टकड़े-टुकड़े कर कहीं धूल में मिला दिया। सावित्री की जब भी याद आती है उसकी छाती जलने लगती है, पिल्‍ही चमक उठती है और तब उसे लगता है जैसे उसने बोतल भर दारु पी ली हो।
उसने तेजी से पैर उठाए, पगडण्‍डी से आगे बढ़ा और नदी को शीघ्र ही पार कर गया। विसनपुर जाने में एक पहर तो जरुर लगेगा। वह अब फिर सावित्री के बारे में बिल्‍कुल नहीं सोचना चाह रहा था। उसे घृणा थी सावित्री से। शादी के बाद पहली बार वह ससुराल गया था। बप्‍पा ने सनेसा में क्‍या नहीं दिया था......चूड़ा, लडुवा, मिठाय, एक कड़ाही दही। सावित्री के लिए नूंगा-अंगिया, साया-सिनूर और न जाने क्‍या-क्‍या। उतना याद नहीं! कितना प्‍यार करता था सावित्री को वह। बप्‍पा भी उसे देख कर बहुत खुश था।
सांझ-सकारे ही वह ससुराल पहुँच गया था। रात होने पर जब सावित्री उसके पास आई थी तो कितनी सुन्‍दर लगी थी वह बटेसर को! सावित्री को छाती से सटा कर उसका गरम हाथ अपने हाथ में लिए काफी देर तक बटेसर बातें करता रहा था, फिर उसे किस समय नींद लगी पता नहीं। अचानक उसे लगा कि सावित्री अपना हाथ उसके हाथ से छुड़ा रही है और उसका बदन ढीला होता जा रहा है। बटेसर की नींद उचट चुकी थी, फिर भी वह अपनी आँखों को बन्‍द किए हुए था।
सावित्री खाट से उतरी और घर की किवाड़ खोलकर बाहर हो गई। बटेसर ने जब आँखें खोलीं तो उसने देखा, घर में डिबिया की मद्धिम रोशनी हो रही है और सावित्री गायब है। वह भी तेजी से बाहर गया, सावित्री तब तक दहीज पार कर चुकी थी।
बटेसर को बड़ा ही अजूबा लग रहा था कि इतनी रात को सावित्री अकेले क्‍यों बाहर निकली! निकाश-पेशाब के लिए जाती तो अपनी माँ को जगा लेती। बटेसर को ही उठा देती तो क्‍या हरज था! वह यकायक इस तरह गायब क्‍यों हो गई!
बटेसर भी लपका, सावित्री तेजी से गांव की गलियेां को पार कर रही थी। आधी रात हो चुकी थी। कुत्ते जोर-जोर से भूंक उठते थे, लेकिन सावित्री को कोई डर ही नहीं जैसे वह पहले से ही कुछ सोच-विचार करके निकली हो।
सावित्री नुक्‍कड़ पर रुक गई और सामने के दरवाजे को उसने आहिस्‍ता से खटखटाया। यह सावजी की दूकान थी, बटेसर को याद आया। तनिक देर में ही दरवाजा खुला और सावित्री अन्‍दर हो गई। दरवाजा फिर बन्‍द हो गया। बटेसर ने सोचा, दरवाजा खोलने वाले को सावित्री के आने का पहले से ही अहसास रहा होगा क्‍योंकि दरवाजा बन्‍द होने के साथ ही शान्‍ति हो गई।
बटेसर की छाती धौंकनी की तरह तेज हो गई। वह दम साधे दरवाजे के सामने जा कर खड़ा हो गया। भीतर सांसों की आवाज के साथ कुछ फुसफुसाहट हो रही थी। बटेसर के पांव जमीन में जैसे गड़ गए। उसने सोचा, जल्‍दी से वह यहाँ से भाग जाए लेकिन वह वहाँ से हट नहीं पाया और सावित्री के निकलने का इन्‍तजार करता रहा।
थोड़ी देर में ही शान्‍ति हो गई थी। भीतर कोई खटिया पर से नीचे उतरा शायद। ‘नहीं-नहीं मुझे पचास रुपये दे दो, सावजी।' बटेसर ने सावित्री की बोली पहचान ली।
‘पचास!' यह एक मर्द की आवाज थी ‘पचास!'
‘हाँ-हाँ पूरे पचास, आज मेरा आदमी आया है। कल से हमारे घर में खाने को कुछ भी नहीं है, तुम्‍हें तो मालूम ही है, घर का खर्चा तुम से ही चलता है। इस के अलावा माँ ने मेरा छल्‍ला और नथिया बनकी रख दी है। उन्‍हें छुड़ाने में पूरे पचास लगेंगे। पचास रुपये दे दो। सुबह मेरा आदमी मेरे जेवर नहीं देखेगा तो सोचेगा शायद बेच-बाच कर खा गई। माँ की बदनामी होगी। और हाँ, भोर होते ही चावल-घी भिजवा देना।''
‘तुम्‍हारा आदमी आया है? अब तो तुम्‍हें विदागरी करा कर ले जाएगा। लेकिन मेरा हिसाब?'
‘मैं अभी जिन्‍दा हूँ, सावजी, सब हिसाब चुकता कर जाऊंगी।' इस बार सावित्री शायद गुस्‍से से बोली क्‍योंकि तुरन्‍त ही दरवाजा जोर से खुला और वह बाहर निकल आई।
बटेसर पिछवारे में छिपा रहा और जब सावित्री चली गई तब वह भी घर में आ गया। वहाँ सावित्री पहले से ही मौजूद थी और जब उसने अपने पीछे बटेसर को खड़ा देखा तो वह सकपका गई। उसने अपनी आँखें नीचे कर लीं और घबराती हुई बोली, मैं, मैं जरा बाहर गई थी, तुम कहाँ चले गए थे?''
मैं तुम्‍हें देखने गया था कि तुम कहाँ गईं थी। क्‍या यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा?''
बटेसर का गुस्‍सा सातवें आसमान से छू रहा था। उसके सारे शरीर का खून दिमाग पर चढ़ गया। आग बबूला होकर उसने सावित्री का नूंगा खोल दिया था। साया की डोरी फट-से टूटी थी और साया नीचे को सरक गया। सावित्री बिल्‍कुल नंगी हो चुकी थी।
सावित्री बिल्‍कुल काठ। जैसे बदन में एक भी बूंद खून नहीं बचा हो लेकिन बटेसर को उस सयम इतना गुस्‍सा था कि अगर उसके पास हथियार मौजूद होता तो वह सावित्री के दो टुकड़े कर देता।
वह अपने गुस्‍से को दबा नहीं पाया। उसने सावित्री को नीचे जमीन पर पटक दिया और उसकी छाती पर चढ़ कर उसका गला जोर से दबा दिया।
सावित्री चिचिया उठी थी। उसने अपना हाथ खोल दिया और दस-दस के पांच नोट जमीन पर फैल गए। बटेसर का शक पक्‍का हो गया।
अगर बटेसर कुछ देर और सावित्री का गला दबाए रह जाता तो उसी दिन सावित्री सीधे स्‍वर्ग में चली जाती लेकिन बटेसर को तुरन्‍त ही होश आ गया। ‘यह तुम क्‍या कर रहे हो,' बटेसर? एक हरजाई की जान लेकर तुम क्‍यों पाप के भागी बनते हो! छोड़ दो इसे ‘‘अपने पाप का फल इसे खुद भोगने दो।''
बटेसर उसी रात सावित्री से सारा रिश्‍ता तोड़कर भाग आया था अपने गांव। उसने बप्‍पा को सब बातें खोलकर बता दी थीं। बप्‍पा को भी गुस्‍सा आया था और ठीक दसवें ही दिन उसकी दूसरी शादी करवा दी थी उसने। फिर साल लगते ही किरमिनियां बेटी हुई। अब वह जवान हो गई है।
जब केवल उसे इसी किरमिनियां की चिन्‍ता है। उस दोगली और बदजात सावित्री को वह अपने दिमाग में कभी लाना नहीं चाहता। ढलते सूरज को देख कर बटेसर को लगा, अब थोड़ी ही देर में सांझ होने वाली है। अचानक सामने की बस्‍ती को देख कर वह ठिठक कर खड़ा हो गया।
अरे, यह कहाँ आ गया वह? अपनी पहली ससुराल........सावित्री का गांव, गाही! वह जा रहा था बिसनपुर तो गाही कैसे पहुँच गया! फिर उसे याद हो आया, गाही और बिसनपुर सटी-सटी बस्‍तियां हैं। दोनों में केवल एक बगीचे का फरक है। गाही के बाद बगीचा टपो तो बिसनपुर पहुँच जाओं। लेकिन बिसनपुर गाही को छोड़कर भी तो जाया जा सकता है। उसे पिछली नुक्‍कड़ से ही मुड़ना चाहिए। यह तो वही रासता है जिस रास्‍ते से वह सतरह बरस पहले सावित्री के दरवाजे पर पहुँचा था। अब, भला वह क्‍यों जाए वहाँ! वह उल्‍टे पांव वापस आया और दूसरे रास्‍ते से बुलाकी चौधरी के द्वार पर पहुँच गया।
बुलाकी चौधरी द्वार पर बैठा था, खलिहानों मे ंरब्‍बी की दौनी हो रही थी। बथान पर बीसों गाय-भैसें सानी खा रही थीं। नौकर-चाकर चलते-फिरते नजर आ रहे थे।
‘‘सच्‍चे, कितना बड़ा गृहस्‍थ है!'' बटेसर ने मन ही मन कहा, ‘यह रिश्‍ता हो जाए तो कितना अच्‍छा! जिन्‍दगी सुगारथ। बेटी सुख करती रहेगी।' उसने बुलाकी चौधरी को अपना और बप्‍पा का परिचय दिया। फिर अपने मन की बात कही और बुलाकी चौधरी ने जो उसके जवाब में कहा उसे सुनकर बटेसर के पांव के नीचे की जमीन खिसकने लगी।
तीन हजार रुपये नगद और दो हजार भरना! यानी पांच हजार देने पड़ेंगे बुलाकी चौधरी को और तब उसका पोता ले जा सकेगा। बटेसर अपनी किरमिनियां के लिए। बुलाकी चौधरी की बातों की रुखाई से बटेसर को रोने का मन हुआ। उसकी छाती बैठ गई और वह ज्‍यादा देर वहाँ रह नहीं पाया। बुलाकी चौधरी ने उससे सीधे बनयौटी बातें की थीं तराजू पर चढ़ा कर। न एक चौठी कम और न एक चौठी बंसी। सब रुपये लाओ और जमाई ले जाओ जैसे जमाई न होकर कोई बैल हो। अँधेरा हो चुका था। रास्‍ता धुँधलाया लगता था। बटेसर के पैर तेजी से उठ रहे थे लेकिन मन खिन्‍न था। बुलाकी चौधरी की बातों ने सब गुड़-गोबर कर दिया था। बहुत आसरा लेकर आया था वह लेकिन सब पानी, और सचमुच उसकी आँखों में पानी भर आया था। लगा उसे, वह रो रहा है लेकिन वह नहीं रो रहा कोई और रो रहा है। पास ही कहीं से किसी के रोने की आवाज है।
अरे, वह तो फिर रास्‍ता भूल गया। यह तो गाही बस्‍ती है और बटेसर एक घर के सामने खड़ा है। कहाँ आ गया वह! उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा है। हाँ-हाँ यह घर तो सावित्री का ही है। वही घर जिसे सतरह बरस पहले छोड़ कर अपने गांव रातोरात भागा था वह। अब वह यहाँ क्‍या लेने आया है! किरमिनियाँ को ब्‍याह नहीं पाएगा। क्‍या यही सुनाने आ गया सावित्री को बटेसर! लेकिन उस हरजाई को यह किस्‍से सुना कर क्‍या मिलेगा उसे।
गलियों में लोगों की हलचल।
‘‘कौन रो रहा है भई! किस को क्‍या हो गया?'' पूछा किसी से बटेसर ने।
‘‘सावित्री मर गई!''
तो सावित्री मर ही गई! बटेसर के पैर धीरे से आंगन में आ गए। बीच आंगन में लाश को घेरे खड़े हैं लोग। यही वह आंगन है। यही वह घर है जहाँ एक दिन बटेसर सावित्री की जान लेने को तैयार हो गया था और आज वह खुद चली गई। अपने पापों का प्रायश्‍चित कर गई।
कुछ लोग बोल रहे थे, ‘‘बड़ी अच्‍छी थी बेचारी, सब की मदद किया करती थी। गांव में कौन ऐसा है जिसने उस का पैसा नहीं खाया हो!''
एक अजनबी को देख कर सब की नजरें बटेसर पर जम गइर्ं। कुछ बूढ़े लोगों ने उसे पहचान लिया। अरे, यह तो बटेसर है। खैर, आ गया बेचारा ऐन मौके पर। सब दिन तो बेचारी सावित्री इसी का नाम जपा करती थी। हाय-हाय, कुछ देर पहले तुम आ गए होते तो बेचारी तुम्‍हारे पांव पर ही दम तोड़ती।
बटेसर ने सोचा, अब उसे यहाँ से चल देना चाहिए। लोग जबर्दस्‍ती कहेंगे कि अब सावित्री का क्रिया-कर्म तुम्‍हीं करो। तुम्‍हारी ही तो औरत थी। इस बुढ़ारी पर कहीं हरजाई की लाश नहीं छूनी पड़ जाए। उस की तो हड्‌डी बिसा जाएगी। तभी गांव का मुखिया आ गया और उसने जब जाना कि बटेसर आ गया है तो उससे कहा, ‘बटेसर, तुम्‍हारे लिए सावित्री एक कागज लिख गई है। अपना घर-मकान, तीन बीघे जमीन, नकद और जेबर सब तुम्‍हारे नाम करके मर गई।
लो यह कागज संभाल कर रखो और साथ-ही-साथ एक रुक्‍का भी उसने दिया है जिसमें कर्ज की वसूली लिखी है। यह रुक्‍का खासकर तुम्‍हारे हाथों में देने को बोल गई है वह। शायद उसने कभी गांव के सावजी से पचास रुपये कर्ज में लिए थे।' पचास रुपए! पांच दसटकिया नोट! बटेसर को उस रात की घटना की याद दिमाग पर चढ़ कर चोट करने लगी, तो क्‍या वे रुपये सावित्री कर्जा कर ले आई थी! वह क्‍या कर गुजरा तू बटेसर! एक निर्दाेष को तू ने हरजाई बना दिया। जरा भी उससे सफाई लेने का तुझे धीरज न रहा। तेरे ही कारण बेचारी सावित्री मर गई।
बटेसर को उसी क्षण अपना माथा फोड़ लेने का मन हुआ लेकिन वह जहाँ खड़ा था वहीं खड़ा रह गया। उसने पल भर विचारा, वह इस कागज को ले या नहीं ले। उसकी आँखों से झरझर आँसू बह रहे थे। धुंधली नजरों के आगे किरमिनियां का चेहरा एकबार फिर घूम गया और दिमाग में अपने गांव के मुखिया का रुक्‍का। अनायास उसका हाथ कागज की ओर बढ़ गया।
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मनोरम-2/32, स्‍टेट बैंक कॉलोनी-2,
खजपुरा, पटना-800014,



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